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राजमहल में – भाग 4

विमलशय ने महाराजा को प्रणाम किया। राजा गुरपाल तो विमलशय के सामने देखता ही
रहा ठगा-ठगा सा। सौन्दर्य से छलकता गोरा-गोरा मुखड़ा कान तक खिंचे हुए मदभरे
नैन गालो पर झूलती केश की लटे कानो में चमकते-दमकते दिव्य कुंडल गले मे
सुशोभित होता नवलखा हार अंग अंग में से फूटती योवन की आभा। साक्षात जैसे
कामदेव। महाराजा गुरपाल की असीम स्नेह में छलकती आँखे, विमलशय पर वात्सल्य
बरसाती रही।ओ परदेशी राजकुमार में तेरा हार्दिक स्वागत करता हूं।महाराजा ने
स्वयं खड़े होकर विमलशय का हाथ पकड़ करके अपने निकट के ही आसन पर उसे
बिठाया।कुमार, तेरी अदभुत कला देखकर मै तेरे पर मुग्ध हूं। प्रसन्न हूँ और इसी
प्रशन्नता से तुझे कहता हूं कि तेरी जो भी इच्छा हो तू मुझसे मांग ले। विमलशय
की पीठ पर स्नेह से पुलकित अपना हाथ सहलाते हुए महाराजा से कहा :पितातुल्य
महाराजा, आपकी कृपा से मेरे पास ढेर सारी सम्पति है। मै क्या मांगू आपके पास ?
कुमार, तेरे पास अपार सम्पति है, फिर भी मेरा मन राजी हो इसलिए भी तू कुछ मांग।
विमलशय ने दो पल सोचा और कहा:
महाराजा, समुद्री किनारे के चुंगी नाके का अधिकार मुझे चाहिए।
बड़ी खुशी के साथ। चुंगी नाके के अधिकारी का पद तो तेरा होगा ही, साथ ही चुंगी
से आने वाला सारा धन तेरा रहेगा। उस पर तेरा ही अधिकार होगा। आपकी बड़ी कृपा
हुई मेरे पर। विशेष, मै अब तुझे मालिन के बगीचे में नही रहना है। राजमहल के
पास ही मै तुझे एक सुंदर महल दे देता हूं, तुझे उस महल में रहना है। विमलशय की
निगाह राजसभा में बैठी हुई मालती पर गिरी। मालती का चेहरा उतर गया था। फिर भी
विमलशय ने महाराजा की बात मान ली। महाराजा, मै कल सवेरे आ जाऊँगा महल में।

आगे अगली पोस्ट मे…

राजमहल में – भाग 3
September 28, 2017
राजमहल में – भाग 5
September 28, 2017

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