सूरसुंदरी ने अपना नाम विमलयश रख लिया । उसे मलिन के घर रहना ही ज्यादा ठीक
लगा । एक पेटी मलिन ने उठाई -दूसरी पेटी उठाकर विमलयश चला ।
मलिन ने अपने मकान पर आकर एक सुंदर-सुविधापुर्ण कमरा खोल दिया । विमलयश को
कमरा पसंद भी आ गया ।
क्यों परदेशी राजकुमार …..मेरी झोपडी पसंद आयेगी ना ?’ मलिन ने एक तरफ़ पेटी
जमाते हुए कहाँ । कोई असुविधा हो ….. कमी हो तो मुझे कह देना । अभी तो तुम
दुग्धपान करोगे ना ?’
हा …. अब तो मुझे तुम्हे ही तकलीफ देना होगी ?’
‘इसमे तकलीफ कैसी भाई ? अतिथि का स्वागत करना तो हमारा फर्ज है …. और तुम
जैसे राजकुमार मेरे घर मे कहा ?
सूरसुनदरी ने दस सोनामुहरे निकलकर मलिन के हाथो मे रख दी। मलिन तो सोनामुहरे
देख कर खुश हो उठी।
अरे….. यह क्या करते हो ? इतनी सारी सोनामुहरे केसे लू ?नही…..’
‘बहन, यह तो कूछ नही है, रख लो मेरी भोजन व्यवस्था भी तुम्हे ही करनी होगी !’
अच्छा राजकुमार आपकी भोजन व्यवस्था मे कोई कमी नही आने दूँगी !
मलिन शीग्रता से अपने घर मे चली गयी । चूल्हे पर दुध गरम करने के लिये रख दिया
। और लगे हाथो बजार मे दौड़ गयी । शक्कर …बादाम… इलायची…. केसर वगेरह
उत्तम द्रव्य खरीद लायी। दुध मे वे सारे द्रव्य डालकर उसे स्वादिष्ट बनाया ।
एक स्वच्छ धातु के पात्र मे लेकर विमलयश के कमरे मे आयी । विमलयश ने दुग्धपान
कर लिया ।
‘अब तुम्हे स्नान करना होगा न ?’
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