‘अपन कल सवेरे यहा से बेनातट नगर के लिए चल देंगे । रत्नजटी ने कहा
आज दोपहर में भोजन के बाद नगर में ढिंढोरा पिटवा देता हूं…. की ‘कल बहन यहा
से चली जायेगी…. जिन्हें भी बहन के दर्शन करना हो …. आ जाये !’
रत्नजटी सुरसुन्दरी के आवास से निकला ।अपने खंड में चला गया ।सुरसुन्दरी
जाते हुए रत्नजटी को देखती ही रही…उसकी आँखें बहने लगी… ‘महान है ….
भैया तू ! संसार मे रहा हुआ तो सत्पुरुष है रत्नजटी ! खारे खारे दरिया में तू
मीठे झरने सा है …तूने अपना वचन बराबर निभाया !
सुरसुन्दरी रत्नजटी के आंतर-बाह्य व्यक्तित्व की महानता को सोचती ही रही….
‘तू जवान है…. राजा है, तेरे पास सत्ता है…. शक्ति है… संपत्ति है… पर
फिर भी तू इन्द्रीयविजेता है। तेरा मनोनुशासन अदभुत है…. तेरा अपने आप पर
नियंत्रण अदभुत है । तेरी वचन-पालन की शक्ति द्रढता कितनी महान है ? तूने गजब
दुष्कर कार्य किया है। साधु पिता का तू सचमुच साधु-पुत्र है ! मेरे भैया ….
मेरे वीर ! तुझे मै जिंदगी में कभी भुला नही पाउंगी। अब तो मेरी जिंदगी कितनी
सुनी सुनी हो जाएगी तेरे बगेर… तुम्हारे बगैर ! भाई का प्यार बचपन मे तो
मिला नही… देखा नही ! तुझ सा भय्या मिला…. पर क्या ये …. ‘पल दो पल का
मिलना… जीवन भर का बिछुड़ना….. कैसी है जिंदगी… कहा से कहा ले आयो मुझे ?
सुरसुन्दरी फफक पड़ी । उसने पलँग में गिर कर तकिये में अपना मुह छुपा लिया,।
उसके आँसु बहते रहे ।उसकी सिसकिया बढ़ती ही चली । मध्यंह के भोजन का समय हो
गया था ।
सुरसुन्दरी उठी…..
रत्नजटी को आग्रह कर बुला लाई, अपने हाथों से बड़े प्रेम से खाना खिलाया
।रानियों ने सुरसुन्दरी को प्यार से , मनुहार कर के खाना खिलाया । रानियों ने
भी भोजन कर लिया ।
नगर में ढिंढोरा पिट गया था ।
नगर की परिचित औरतों का प्रवाह राजमहल में आना प्रारम्भ हो गया था ।
राजमहल के मध्यखण्ड में चारो रानियों के साथ सुरसुन्दरी बैठी हुई थी । नगर की
प्रतिष्टित सन्नारियों से खण्ड भर गया था। सुरसुन्दरी सभी स्त्रीयो से प्रेम
मिली। सुरसुन्दरी ने एक घटिका पर्यत जिनभक्ति के बारे में सबको बहुत कुछ
बताया। सभी स्त्रियां हर्ष विभोर हो उठी। वापस जल्दी जल्दी सुरसंगीत नगर में
आने की प्रार्थना करके सभी ने विदा ली । सुरसुन्दरी रानियों के साथ अपने कमरे
में आयी ।
आगे अगली पोस्ट मे…