दिन डलने लगा। रात छाने लगी’, पर बेचैनी का साया पूरे महल पर इस कदर छाया
हुआ था कि स्याह रात ढल गयी पर उदासी का अंधेरा ज्यादा गहराने लगा। अब
सुरसुन्दरी इस महल मे केवल एक ही दिन और एक ही रात रहने वाली थी।
प्रभातिक कार्यो से निवृत होकर रत्नजटी स्वयं सुरसुन्दरी के कक्ष में गया ।
सुरसुन्दरी खड़ी हो गई । रत्नजटी का मौन स्वागत किया । रत्नजटी को आसन पर बिठा
कर स्वयं जमीन पर बैठ गई । बहन…… ‘ रत्नजटी की आखों में आँसू उभरने
लगे…..
बोलो भैया…. ‘सुरसुन्दरी भी अपने आप पर काबू पाने की कोशिश कर रही थी ।
‘नही जानता हूं तेरी जुदाई की पीड़ा कैसे सहन पाऊंगा ?पर कल तुजे बेनातट
पहुचाना तो हैं ही !बहन….मै तेरी कुछ भी सेवा नही कर पाया हूं ।तो तो
पुण्यशीला है ….गुणों की जीवित मूर्ति है । मेरी यदि कोई गलती हुई हो तो
मुझे माफ़ करना….बहन ।औऱ… बहन ….. तेरे से कुछ माँग ले….भाई से मांगने
का बहन, को अधिकार है ।
सुरसुन्दरी की आँखे बरबस बहने लगी ।उसने अपने उत्तरीय वस्र से आँखें पोंछी ओर
भर्राई आवाज में बोली : ‘मेरे भैया , तेरे गुणों का तो पर ही नही है …. तेरे
स्नेह भरे सहवास में नो-नो महीने कहा गुजर गए पता ही नही लगा ! यहां पर मुझे
सुख ही सुख …. केवल सुख मिला है, दुख का नामोनिशां नही है । फिर भी ये चार
विद्याए तुमसे सीखना चाहती हूं जो मेरी भाभियो ने मुझे दी है ।’ रत्नजटी ने
स्वस्थ हो कर वही पर सुरसुन्दरी को चारो विद्याए सिखला दी । सुरसुन्दरी ने कहा
:
‘तुम उत्तम पुरुष हो, मेरे पर तुम्हारे शेष्ट उपकार है । ये विद्याए देकर
तुमने उन उपकारों को और गाढ बना दिया है ।’
आगे अगली पोस्ट मे…