सुरसुन्दरी को अब यह भी तस्सली हो गयी कि रत्नजटी सचमुच ही अब उसे कुछ ही
दिनों में बेनातट नगर में पहुँचा देगा। ऐसे स्नेह-सलिल से छल छल सरोवर से
परिवार को छोड़कर मुझे जाना होगा ? इस विचार ने उसे कंपकंपा दिया।
हा… वैसे भी अब मुझे जाना ही चाहिए। अमर मिले इससे पहले ही मुझे उसका सौंपा
हुआ कार्य भी करना है। सात कोड़ी से राज लेना ही उसने मुझे यह कार्य सौंपा है
ना ? मुझे राज्य लेना ही होगा। हाँ, मै मेरे नवकार मंत्र के सहारे ही राज्य
लूँगी। फिर उसे कहूंगी देख, मेने सात कोड़ी मे राज्य ले लिया अब संभाल तू इस
राज्य को।
मेरे पापकर्मो का उदय तो वैसे भी समाप्त हो ही गया है। अब पुण्यकर्म जग गया
है। ऐसा प्रेमभरा विद्याधर राजा भाई के रूप में मुझे मिल जो गया है। फिर राज्य
प्राप्त करना यह कोई बड़ी बात नही है।
सुरसुन्दरी अमरकुमार के मिलन के विचारो मे खो गयी। इतने में तो एक के बाद एक
चारो रानियां उसके खंड में आयी। चारो के चेहरो पर ग्लानि थी, विषाद था। आकर वे
चुपचाप सुरसुन्दरी के पास बैठ गयी।
सुरसुन्दरी उठकर बैठी। उसने चारो रानियो के सामने देखा। चारो की दृष्टि जमीन
पर गड़ी हुई थी।
‘क्यो ? इतनी उदासी क्यो, मेरी प्यारी भाभिया ?
जवाब में आंसू और सिसकियाँ।
सुरसुन्दरी अस्वस्थ हो उठी।
‘क्या हुआ भाभी ? सुरसुन्दरी ने सबसे बड़ी रानी महिप्रभा के चेहरे को अपनी
हथेलियों में बांधते हुए पूछा:
महिप्रभा बोल नही सकती है। उसने अपना सर सुरसुन्दरी की गोद मे रख दिया। वह फफक
फफक कर रो दी। सुरसुन्दरी भी बरबस रोने लगी।
आज यह सब क्या हो रहा है ? मेरी समझ मे नही आ रहा है कुछ !
सुरसुन्दरी रोती हुई बोली। महिप्रभा ने सुरसुन्दरी के आँसू पोछे :
दीदी … तुम मत रोओ।
तुम सब जो रोयी जा रही हो… मै कैसे देखू तुम्हारे ये आँसू ?
अब आंसुओ के सिवा औऱ क्या रखा है, हमारे लिये, दीदी ?
क्यो ऐसी बुरी बाते कर रहे हो ? क्या हो गया है तुम्हे ?
और क्या बोलू ! तुम्हारे भाई ने हमसे कहा…
क्या कहा भाभी ?
अब बहन कुछ दिन की ही मेहमान है..
पर यह बात तो… मै जिस दिन यहाँ आई थी उस दिन भी कही थी ना ?
परन्तु हमने कुछ दिन का अर्थ ऐसा नही समझा था। अभी तो कुछ समय ही बीता हैं।
कुछ दिन का अर्थ और छः महीना और करलो ना ? सुरसुन्दरी ने माहौल की घुटन को
हल्का करने की कोशिश की। रानियों का रुदन कम हुआ।
यानी सचमुच तुम छह महीने रहोगी ना ? दूसरी रानी रत्नप्रभा ने आँसुभरी खुशी के
स्वर में पूछा।
आगे अगली पोस्ट मे…