और सुंदरी ने आगे जोडते हुये कहा, तुम्हे परिवारिक अनुकूलता भी कितनी सहज
मिल गई हैं ! मेरी चारों भाभियां कितनी सुशील, संस्कारी एवं गुणो के झरने के
जैसी है। जो तुम्हारी इच्छा वो उनकी चाह। जो तुम्हारा इशारा वह उनका जीवन।
मैने तो इन महीनों में खुद अपनी नज़रो से देखा है …परखा है…ये चारों
रानियां जैसे कि केवल तुम्हारे लिये ही जीती है। अलबत्ता, उन्हें पति भी तो
वैसा ही गुणी मेरा भैया मिला है।
भैया , अनन्त अनन्त पुण्यों का उदय हो तभी ऐसा अनुकूल पारिवारिक जीवन मिलता
है। ऐसे सुंदर स्वस्थ एवं सहज वातावरण में मनुष्य चाहें उतना धर्म कर सकता है।
‘
हमारा जीवन तो वैभव-विलास से भरा हुआ ही हैं। फिर भी ‘दृष्टि’ बदली जा सकती
हैं। ‘दृष्टिकोण’ बदला जा सकता है। भोगी भी त्याग का लक्ष्य रख सकता है। ह्रदय
के मंदिर में ज्ञानदृष्टि का रत्नदीप जल सकता है।बाहर से विलासी जीवात्मा भी
भीतर से अनासक्त रह सकता है।
रत्नजटी का विषाद दूर हो गया। उसका मन प्रफुल्लित हुआ। उसके चेहरे पर
प्रसन्नता के फूल खिल उठे और यह देखकर उसकी चारो रानिया भी खिलखिला उठी। उनके
नयन नाच उठे।
सुरसुन्दरी ने रत्नजटि को भोजन करवाया फिर भाभियो के साथ बैठकर भोजन किया।
भोजन करके सभी अपने अपने खंड में चले गये।
सुरसुन्दरी अपने निवास में आयी। वस्त्र बदलकर उसने विधिवत श्री नवकार
महामन्त्र का ध्यान किया।
ध्यान से निव्रव होकर विश्राम करने के लिये वो जमीन पर लेटी। उसके मनोजगत
में रत्नजटी उभर आया।रत्नजटी के गुणामय व्यकितत्व के प्रति उसके मन मे आदर था।
आज वह आदर निर्मल स्नेह से और ज्यादा प्रगाढ़ बना था। रत्नजटी केवल
बाहरी-व्यवहारिक भूमिका पर ही भाई-बहन के रिश्ते को नही संभाल रहा था.. इस बात
की उसे आज प्रतीति हो चूँकि थी। रत्नजटी के दिल मे भी बहन के रूप में अपनी
स्थापना हुई उसने देखी। बहन के प्रति कर्तव्यपालन की जागृति उसने पायीं। बहन
के सुख के बारे में सोचने वाला रत्नजटी उसे भव्य लगा उन्नत प्रतीत हुआ।
आगा अगली पोस्ट मे…