रत्नजटी ने पुछा चंचल,अस्थिर मन क्या शुद्ध आत्मस्वरूप के चिंतन में स्थिर
हो सकता हैं ?’
‘अवश्य हो सकता है हमेशा उस दिशा में करते रहने से एक न एक दिन सफलता ज़रूर
मिलती हैं। मन की चंचलता, मन की अस्थिरता पैदा होती हैं,ममत्व से न ? पर
पदर्थों पर ममत्व को भटकने के लिये अन्यत्व भावना कितनी अचूक हैं…उससे भावित
होने का।
‘मेरी आत्मा से भिन्न कोई मेरा पदार्थ नही हैं…स्वजनों से… परिजनों से…
वैभव -सम्पति से… और शरीर से भी भिन्न हूँ। यह चिंतन करते रहने से ममत्व की
मात्रा घटेगी…. आसक्ति भी कम होगी। मन भी धीरे धीरे स्थिर होने लगेगा ।
”ममत्व के संस्कार तो जन्म जन्म के हे ना ? ऐसे प्रगाढ़ संस्कार क्या थोड़े पलो
के इस पवित्र विचारो से नष्ट हो जायेगे ?
‘क्यो नही होगे ? ज़रूर होंगे। अरे…. कई बरसो से इकट्ठे घास के ढेर को क्या
एक चिंगारी ही जलाकर राख नही बना देती ? तत्वचिंतन तो ज्वाला है?… अनन्त
जन्मो के कुसंस्कार एवं वासनाओ के ढेर को जलाकर जला डालती है ।
शास्त्रो में ऐसी तो कई घटनाएं जानने को मिलती है। मैने सुनी भी है …वर्तमान
मे भी अपन ऐसी घटनाएं सुनते है जानते हैं। आत्मध्यान से, पर्मात्माभक्ति से
,अनेक तरह के पापो में डूबी आत्मा भी पूर्णता के शिखर तक पहुंच जाती है। तो
फिर अपन क्यो पूर्णता के रास्ते पर गति नही कर सकते है ? क्यो अपन प्रगति नहीं
कर सकते है ?
औऱ फिर …तुम्हारा तो कितना गज़ब का पुण्योंदय है ? तुम्है तो पिता ही
ज्ञानी गुरुदेव के रूप में मिले है। तुम्हारे पास आकाशगामिनी लब्धि है। तुम्हे
जब भी तत्वचिंतन में या आत्मध्यान में विक्षेप लगे…. कठिनाई या अढ़चन महसूस
हो…. तब तुम गुरुदेव के पास जाकर उनका मार्गदर्शन प्राप्त कर सकते हो।
ज्ञानमार्ग में एवं ध्यानमार्ग में पयदर्शक गुरुजनों का मार्गदर्शन काफी
महत्वपूर्ण एवं जरूरी है…तुम्हे वह मार्गदर्शन सरलता से उपलब्ध हो सकता है।
आगे अगली पोस्ट मे …