‘पर क्यो अभी से ऐसी कल्पना कर रहे हो ? क्या आज ही मुझे भेज देना है ?
सुन्दरी ने पुछा
”नही …नही …अभी तो कुछ दिन रहने का ही है । पर मन भी कितना नादान है ?
अनजान भविष्य के बारे में सोचे बगैर कहा रहता है ? भूतकाल की स्मृति एवं
भविष्य की कल्पनाऐं करना तो मन का पुराना स्वभाव है’।
‘इसलिए तो ज्ञानी पुरूष… पूर्ण ज्ञानी महात्मा कहते है कि मन को तत्वचिन्तन
में डुबोये रखो। तत्वचिन्तन में मन डूबने लगा … डुबकियाँ लगाने लगा तो फिर
अतीत और आने वाले कल के इर्दगिर्द मन का भटकना अपने आप बंद हो जाएगा ।
‘सही बात है तेरी ,पर तत्वचिन्तन या विचार का रास्ता मेरे जैसे राजा के लिये
कहा इतना सरल है ?
‘क्यो नही है सरल ? भगवान ऋषभदेव के पुत्र तो चक्रवर्ती सम्राट थे ना ? फिर
भी वे रोजाना रात्रि में तत्वचिन्तन के सागर में डूब जाते थे ना ? आत्मा के
एकत्व का चिंतन एवं पर पदार्थो के अन्यत्व का चिंतन करते थे । इसलिये तो
उन्हें दर्पण-महल में अपने देह का सौंदर्य देखते देखते केवलज्ञान हो गया था ।
अंगूली पर से अंगूठी निकल पड़ी …अंगूठी बिना अंगूली देखकर चिंतन का अविरत
प्रवाह चालू हो उठा । आद्यात्मिक चिंतन शुरू हो गया। आत्मा के अक्षय …अरुप
स्वरूप की लीनता जमती चली, भरत केवलज्ञानी हो गये । मेरे प्यारे भैया! तुम भी
रोजाना आत्म चिंतन कर सकते हो …मै तो तुम्हे बहुत आग्रह अनुनय कर के कहती
हूं कि रोजाना रात की नीरव १६ शांत वेला में शुद्ध आत्मस्वरूप का चिंतन ,मनन
एवं ध्यान करो । तुम्हे अपूर्व आत्म ध्यान की अनुभूति होगी और यदि तुमने इतना
किया तो मेरा यहां आना भी सार्थक होगा ।’
रत्नजटी को सुरसुन्दरी की बात अच्छी लगी , वह तन्मय होकर सुन रहा था। फिर भी
उसने अपनी मुश्किली बतायी :
‘तेरा बताया हुआ रास्ता अच्छा है पर चंचल,अस्थिर मन क्या शुद्ध आत्मस्वरूप के
चिंतन में स्थिर हो सकता हैं ?’
आगे अगली पोस्ट मे…