तू तेरे ही ह्रदय का विचार करेगा, रत्नजट्टी ! क्या उस बहन को उसका पति
याद नही आता होगा ? तू क्यों भुल जाता है पिता मुनि की भविष्यवाणी को ! ‘तेरा
पाप कर्म काफी खत्म हो चुका है…. सुरसुन्दरी, बेनातट नगर में तेरे पति से
तेरा मिलना होगा ।’ और रत्नजट्टी की आँखे सजल हो उठी ।
मुझे बहन के सुख के बारे में सोचना चाहिए । स्त्री के जीवन मे बड़े से बड़ा
सुख उसका पति होता है…. । मुझे अब अलप दिनों में ही बेनातट नगर पहुँचा देना
चाहिए । उसके बिना….’
रत्नजट्टी पलंग में पेड़ से कटी डाली की तरह ढेर हो गया । फफक फफक कर रो पड़ा ।
उसका मन काफी उद्धिग्न हो उठा था । विरह-वियोग की कल्पना से उसका मन पागल हुआ
जा रहा था….विचारो की जकड़न और ज्यादा गहरी होती चली….
‘ मै उसे कहूँगा…. बहन, तेरे पति को ले कर तू वापस यहां आ जाना….फिर तू
यही रहना….मै अमरकुमार को आधा राज्य दे दूंगा। विद्या शक्ति दे दूंगा….वह
मांन जाएगी ….फिर बस… कभी वियोग नही होगा ! हा…. फिलहाल तो मै तेरे को
बेनातट पहुँचा दूँगा…. वो अमरकुमार अवश्य मिलेंगे तुझे । पर पति के मिलने के
बाद भाई को भूल तो नही जाएगी न ? मै तो तुझे इस जन्म में एक पल के लिए भी नही
भूल सकता ! तेरे गुणों को याद करके… ‘
रत्नजट्टी की आंखे बरबस -बरसने लगी। पलको का किनारा तोड़कर अजस्र आँसू बह
निकले। रत्नजट्टी स्वगत बोलने लगा :
‘ पर मेरी लाडली बहन ! मै तुझे किस जीभ से कहूं कि ‘चल, मै तुझे बेनातट नगर
में छोड़ आता हूं ….. नही…. नही…. मेरी जीभ के टुकड़े टुकड़े हो जाए…. पर
मै तुझसे चलने का… यहां से जाने का नही कह सकता…..!’
ओह ! भावुकता और कर्तव्य के के बीच कैसा करारा संघर्ष उठा है मन मे? प्रेम
तुझे दूर करने की कल्पना भी नही करने देता है… जबकि कर्तव्य तुझे दूर दूर ले
जाने को मजबूर कर रहा है । स्नेह में मेरा विचार मुख्य है…. कर्तव्य में
तेरा विचार पहले आता है, पर… प्यारी बहन….. नही…. मै स्वार्थी नही
बनुगा…. चाहे मेरा ह्रदय टूट टूट कर बिखर जाए…पर मै तेरे सुख का विचार ही
पहले करूँगा। तुझे बेनातट नगर पहुँचाऊँगा ही। तू सुखी बन…. मेरी लाडली
बहन… बस… कभी तेरे इस अभागे भाई को याद करना ….’
रत्नजट्टी के रुदन ने महल के पत्थरों को हिला दिए होंगे।
आगे अगली पोस्ट मे…