रत्नजटी के मन में कभी कभी यह सवाल उभरता था कि ‘जिसके साथ मेरा कोई
संबंध नहीं है… कोई परिचय नहीं है… कोई स्वार्थ भी नहीं है… क्यों फिर
उसके प्रति दिल में स्नेह के शतशत दीप जल उठे है ? क्यों मैं उसे अपने महल में
ले आया… क्यों मैंने उसे अपने महल में रखा ?
क्यों उससे इतना नजदीक रिश्ता हो गया ? क्यों वह मुझे आत्मीया लगने लगी ।
नंदीश्वर द्वीप की यात्रा करवा के उसे क्यों मैंने वो जहां जाना चाहती थी …
वहां पर पहुँचाया नहीं । एक अपरिचित यौवना के प्रति क्यों इतना और ऐसा गाढ़
आकर्षण जग उठा है ? ठीक है , उस आकर्षण का माध्यम उसके गुण है … पर मुझे
उससे क्या लेना देना ? मैं तो मेरी समग्रता से उसको चाहने लग गया हूं । मेरी
रानियां भी उसके साथ आत्मीयता बांध बेठी है…क्यों ? आखिर किस लिये ? किसी भी
प्रयोजन के बगैर क्या ऐसे संबंधो के फूल खिल सकते है ?
तो क्या गत जन्म-जन्मान्तर के किन्हीं संबंधो के संस्कार जग उठे है ? हां
, फिर उसमें वर्तमान जीवन के नाम या परिचय की जरूरत नहीं रहती है … उसमे
किसी दैहिक रूप या लावण्य की भी आवश्यकता नहीं रहती है । जरूर…जन्म ,
जन्मान्तर के ही कोई संस्कार जगे है ।’
इस तरह रत्नजटी स्वयं ही अपने मन के प्रशनों का समाधान करता है ।
जीवन में काफी कुछ अनचाहा – अनसोचा हो जाता है । यह भी एक अनसोची घटना थी
। हालांकि , पूर्णज्ञानी पुरुषों की द्ष्टि में तो कुछ भी अनसोचा या अचानक
नहीं होता है । अनसोचा और सोचा हुआ … यह सब तो मनुष्य की कल्पनाएँ है ।
नन्दीश्वर द्वीप से वापस लौटते हुए रत्नजटी ने कहां सोचा था कि आकाश में से एक
मनुष्य स्त्री की गिरती हुई पकड़ लेगा … और उसे वो अपने महल में ले आयेगा ।
छह महीने बीत गये।
आगे अगली पोस्ट मे…