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प्रीत किये दुःख होय – भाग 2

पुरुष का मन ही कुछ ऐसा विचित्र है । वह अपने वैषयिक सुखों की लालसा के लिये
नये नये रंग-रूप खोजने में भटकता रहता रहता है ।
रत्नजटी उसमें बिल्कुल अपवाद था । फिर भी वह अपने मन में पूरी तरह जागृत था।
वह समझता था कि कर्मपरवश जीव के विचार हर हमेश एक से स्थिर नहीं रह सकते । कभी
विचारों की दुनिया में पवित्रता के फूल महकते हों तो कभी विचारों के व्योम में
वासनाओं की चीलें मंडराने लगे । रत्नजटी जनता था कि मनुष्य अपने मन को संयमित
रख सकता है… पर कभी वो संयम का बांध मिट्टी का ढेर साबित होता है… विचारों
का उफनता एवं उछलता प्रवाह उस बांध को तहस-नहस कर डालता है ।
अनेक बार पिता मुनिराज के धर्मोपदेश में उसने सुना था कि बड़े बड़े
संयमधारी ऋषि-मुनि भी स्त्री का निमित्त पाकर वैचारिक एवं शारीरिक पतन की गर्त
में फंस पड़े है । उसने यह सुनकर अपने आप की तुलना भी की थी … उन उग्र तपस्वी
एवं संयमी मुनिओं के मनोनिग्रह की तुलना में मेरा मनोनिग्रह तो क्या बिसात में
है ? ऐसे मुनि कि जो साधना के शिखर पर थे , अध्यात्म की ऊँचाइयों पर आसीन थे ,
उन्होंने भी जब अपना मनोनिग्रह खो डाला … किसी एकाध निमित्त को पाकर … फिर
मैं तो कौन ? मुझे ऐसे पतन के निमित्त से बचना चाहिए । दूर ही रहना चाहिए ।
इस सावधानी को उसने अपने जीवन में स्थान दिया था । इसलिये तो उछलती जवानी
और ढेर सारी संपति होने पर भी राजा रत्नजटी का जीवन पूरी तरह निष्कलंक था…
वो अपनी रानियों का पूर्ण वफादार था । किसी भी परस्त्री का उसने संपर्क नहीं
रखा था ।या स्त्री के साथ उसने आत्मीयता का नाता बांधा नहीं था । सदाचार का वह
चुस्ती से पालन करता था । वचन पालन एवं वफादारी जैसे मानवीय गुणों को भरपूर
फसल उसकी जीवनधरा पर उगी थी ।
उसने अपने राज्य में भी मानवीय गुणों का श्रेष्ठ प्रचार एवं प्रसार किया
था । प्रजाजनों में मानवता के गुण … नैतिकता के फूल खिले रहें…इसके लिये
वो सदैव प्रयत्नशील रहता था । वैसे भी बाह्म सुख-साहबी एवं समृद्धि का
विद्याधरों की दुनिया में पार नहीं रहता है पर रत्नजटी के राज्य में तो भीतरी
सुख – समृद्धि भी अपार थी ।
सुरसुन्दरी तो सहसा रत्नजटी की जन्दगी में आ गयी थी । भारंड पक्षी की
चोंच में से निकलकर जमीन पर गिरती हुई उसे उसने अपने विमान में पकड़ ली थी ।
उसके करुणापूर्ण ह्दय ने उसको पकड़वा लिया था ‘दूसरे के दुःखों को दूर करने की
इच्छा एवं प्रवुत्ति जीवात्माओं के साथ सच्ची मैत्री है…’ यह सत्य उसने
आत्मसात कर लिया था । उसने सुरसुन्दरी के दुःख दूर किये , उसे भरपूर सुख दिये
। उसकी तरफ से किसी भी तरह के सुख को पाने की अपेक्षा नहीं रखी थी । दुनिया
में एक श्रेष्ठ कक्षा का भाई अपनी सहोदरा बहन को जितना और जैसा सुख देंगे…,
उतना और वैसा सुख उसने सुरसुन्दरी को दिया था ।

आगे अगली पोस्ट मे…

प्रीत किये दुःख होय – भाग 1
September 1, 2017
प्रीत किये दुःख होय – भाग 3
September 1, 2017

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