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भीतर का श्रंगार – भाग 10

राजपुरुष श्रीदत्त की हवेली पर पहुंचे। श्रीमती से कहाँ: हम सेठ की संपत्ति
लेने आये है ।
भाई…. ले जाइए…. सारी संपत्ति ले जाईये…. सेठ पूरी संपत्ति इस पिटारे
में भरकर गए है… पूरा पिटारा ही लजाओ …. ये चाबियां रही ।
राजपुरुष पिटारा उठाने गए …तो पिटारा काफी वजनदार लगा ….वे खुश हो उठे !
जरूर पिटारे में ढेर सारी संपत्ति होगी !
पिटारा लेकर वे राजमहल में रानी के पास गए …महारानी ने सोचा । महाराज आकर
पिटारा खोले उससे पहले में पिटारा खोलकर उसमे से मेरे को जो अच्छे लगे वे
अलंकार निकाल कर अलग रख दु !राजपुरुषों से उसके पिटारे की चाबियां ले ली ।
रानी ने जैसे ही पिटारे का पहला कहना खोला की एकदम अंदर से पुरोहित जी निकले
…..! रानी चोंक उठी ।
यह क्या ? तुम पिटारे में कैसे ? रानी ने पूछा ।
अभी और ताले खोलिये महारानी….. फिर मुझे सजा करना ….’
रानी ने दूसरा खाना खोला तो उसमें से सेनापति जी प्रगट हुवे ।
रानी ने तीसरा खाना खोला तो महामंत्री जी निकले …और चौथा खाना खोला तो
महाराजा स्वयं प्रगट हुवे । सभी के चेहरे श्याम हो गये थे ! रानी की आंखों
में गुस्से के अंगारे दहक रहे थे। राजा ने पुरोहित वगेरह को रवाना कर के रानी
की समक्ष अपना गुना कबुल किया ।
श्रीमती को आदरपूर्वक राजमहल में बुलाकर उससे क्षमा मांगी । उनकी बुद्धिमत्ता
एवं जीवन निष्ठा के लिए शाबाशी दी … उत्तम वस्त्र अलंकारो से उसका सम्मान
किया । जब श्रीदत्त श्रेष्ठी परदेश से आया …. श्रीमती ने सारी बात कही ….
दोनो पति खूब हंसे … पेट पकड़ कर हंसे ।
सुरसुन्दरी ने कहानी पूरी की ।
बस औरत तो ऐसी श्रीमती केसी होनी चाहिए ।
चारो रानियां बोल उठी ।
अब भोजन का समय हो गया है…. मेरे भैया राह देखते हुए बैठे होंगे ।
चलो चलो आज तो भूख भी जोरो की लगी है …कहानी की तरह भोजन भी खूब अच्छा लगेगा

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