पहला प्रहर ज्यों त्यों बिता देना है।
इन राक्षसी दरिंदों को पाठ पढना ही होगा। तो जरा भी गबराना मत। परिचारिका चतुर
थी। श्रीमती की बात उसने बारबर समझ ली ।
रात्रि का अंधकार छाने लगा…. और पुरोहित आ पहुंचा। दासी ने स्वागत किया।
शयनखंड में ले आई।श्रीमती ने सोलह शृंगार सजाये थे । आंखों के कटाक्ष करके
उसने पुरोहित को पागल सा बना दिया । पुरोहित लाख सुवर्ण मुद्राओं की कीमत के
रत्न ले कर आया था । उसने रत्न श्रीमती को सौप दिए। श्रीमती ने रत्नो को
सम्भाल कर तिजोरी में रख दिये। दासी को कहा : ‘पुरोहितजी के शरीर को तेल सर
अभ्यंग करना…. फिर उष्ण जल से स्नान करवाना…… इसके बाद भोजन करवाना फिर
मेरे पास ले आना….. बारबर सेवा करना इनकी।
परिचारिका एक प्रहर तक पुरोहित को पटाती रही….. खेलाती रही ….
दूसरा प्रहर प्रारंभ हुवा की हवेली के दरवाजे पर दस्तक हुई ….. हवेली का
दरवाजा खटखटाया। पुरोहितजी घबराये ….. श्रीमती दरवाजे तक जाकर वापस आई ।
कौन आया है ?पुरोहित ने पूछा
‘सेनापति’।
‘क्या ? सेनापति ? अभी यहां कैसे ? हाय…. अब मेरा क्या होगा ? मुझे बचा तू
किसी भी तरह ! ‘
‘पर, मै कैसे बचाऊं ?’
कुछ भी कर… कही भी मुझे छुपा दे…. मुझे तू बचा मेरी माँ !
‘तो ऐसा कर इस पिटारे में घुस जा….! ! ‘
पुरोहित को पिटारे के एक खाने में उतार कर ऊपर से दरवाजा बनफ करके ताला लगा
दिया ! हवेली का दरवाजा खोला… सेनापति का स्वागत किया… सेनापति भी कीमती
रत्न लेकर आया था….. श्रीमती ने रत्न लेकर तिजोरी में रख दिया और फिर
सेनापति के सेवाभक्ति चालू कर दी… बातो ही बातों में दूसरा प्रहार पूरा हो
गया…!और
हवेली के दरवाजे पर दस्तक हुई ।
सेनापति घबराया….’ओह ! इस वक्त कौन आया होगा ?’
श्रीमति दरवाजे पर जाकर वापस आयी…’महामंत्री आये है ….
बाप रे…. अब ? मुझे छुपने की जगह बता…. मै बेमौत मर जाऊंगा…. हवेली में
कही पर भी मुझे छुपा दे…
श्रीमती ने सेनापति को पिटारे में छुपा कर ताला मार दिया ! हवेली का दरवाजा
खुला महामंत्री का आगमन हुआ। स्वागत हुआ। महामंत्री श्रीमती को देने के लिए नो
लक्खा हार लाये थे। श्रीमती ने हार लेकर तिजोरी में रख दिया। एवं महामंत्री से
चापलूसी करना चॉलु किया । एक प्रहर तक ईथर -उधर करके समय बिताती रही
….चौथे प्रहर का प्रारंभ हुवा और
आगे अगली पोस्ट मे…