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भीतर का श्रंगार – भाग 6

हे पुरोहित! इस लोक में पाप से अत्यंत आच्छादित व्यक्ति को कुछ भी सुख नही
होता है। मनुष्य का जीवन क्षमाभंगुर है इसलिए धर्म मे बुद्धि रख।
श्लोक के चारो चरणों के प्रथम अक्षर के जरिये ‘नेच्छामि ते’ में तुम्हे नही
चाहती हु वैसा जवाब दे दिया।
उस दिन तो पुरोहित चला गया.. पर उसने अपने मन मे निर्णय किया कि किसी भी तरह
से श्रीमती को बस में करना। श्रीमती ने भी अपने मन मे निर्णय किया कि किसी
हालात में पुरोहित के बस में नही होना। दूसरे दिन तो पुरोहित बेशर्म होकर
श्रीमती के समक्ष लार टपकाने लगा श्रीमती ने उसे खूब समझाया पर वो तो श्रीमती
के पैरों में गिर कर भोग-प्राथना करने लगा श्रीमती ने आखिर अपने मन मे एक
योजना बनायी और उससे कहा
‘आज रात को पहले प्रहर में आना।’
पुरोहित तो नाच उठा। वो खुश होकर अपने घर पर गया। श्रीमती ने श्रंगार किया और
नगर के सेनापति चन्द्रधवल के पास पहुँची। सेनापति से कहा: मेरे पति परदेश गये
हुए हैं.. मेरे पति का मित्र सुरदत्त मेरे पर मोहित होकर जबरजस्ती करने को
तैयार हुआ है.. तुम मुझे उसके चंगुल से बचाओ। सेनापति श्रीमती का अदभुत रूप
देखकर उस पर मुग्ध हो उठा। सेनापति ने कहा सुन्दरी… तू चिंता मत कर। उस
पुरोहित के बच्चे से तो मैं निपट लूँगा… पर तु मेरी प्रियतमा बन जा। मै तेरे
पर तेरे रूप पर मुग्ध हो गया हूं । बोल.. कब आऊँ .. मै तेरी हवेली पर ?
श्रीमती तो सेनापति की बात सुनकर भोचकी रह गयी.. ‘अरे … यह रक्षक है कि
स्वयं ही भझक ? उसने सेनापति को काफी समझाया पर सेनापति एक का दो नही हुआ।
आखिर श्रीमती ने उसे रात के दूसरे प्रहर में आने का निमंत्रण दिया।
वहाँ से श्रीमती राज्य के महामंत्री मतिधन के पास पहुँची। उसने जाकर मंत्री से
निवेदन किया :’ महामंत्री आप मेरी रक्षा करे… सेनापति मेरा शील लूटना चाहता
है..मेरे पति की अनुपस्थिति में आप मुझे बचाइये। महामंत्री श्रीमती का रूप…
उसकी जवानी… उसका लावण्य देखकर ठगा ठगा सा रह गया.. वह स्वयं ही कामांध हो
उठा था। उसने कहा:’ श्रीमती उस सेनापति को तो मै कल ही हाथी के पैरों तले
रूद्ववा दूँगा.. पर मै तेरे रूप का प्यासा हूं… मेरी प्यास बुझानी होगी…
बस एक बार ! बोल कब आऊँ में तेरे पास ?

आगे अगली पोस्ट मे…

भीतर का श्रंगार – भाग 5
September 1, 2017
भीतर का श्रंगार – भाग 7
September 1, 2017

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