सोम्य मुखाकृति !
स्यंमसुवासित देहयष्टि !
तप के तेज से चमकती आँखे !
दिव्य प्रभाव का उजाला फैलाता हुआ आभामंडल ! मनिशंख मुनिराज के दर्शन कर के
सुरसुन्दरी के नयन उत्फुल्ल हो उठे। उसका ह्रदय कमल खिल उठा !
रत्नजटी एवं सुरसुन्दरी ने सविधि वंदना की। दोनों मुनिराज के सामने
विनयपूर्वक बैठ गये। मुनिराज ने धर्मलाभ का गम्भीर स्वर में आशीर्वाद दिया। दो
पल आंखे मुंदी एवं अमृत सी मधुर वाणी की मन्दाकिनी प्रवाहित होने लगी।महानुभाव
! धर्म का प्रबल पुरुषार्थ कर के इस मनुष्य जीवन को सफल बना लेना चाहिए।
तुम्हें में ऐसे पाँच प्रकार बतलाता हूं धर्म के, जिसका कथन सर्वज्ञ वीतराग
परमात्मा ने किया है –
दया, दान देवपूजा, दमन एवं दीक्षा
-इस पाँच प्रकार का धर्मपुरुषार्थ करने वाला मनुष्य सुख-शांति को प्राप्त करता
है.. परमात्मा को पावन करता हुआ परमात्मा के निकट ले जाता हैं एवं अंत में
निर्वाग को भी प्राप्त कर लेता है। मनुष्य यह धर्मपुरुषार्थ तब ही जाकर कर
सकता है जबकि वो अप्रमत्त बने प्रमाद का त्याग करे..विषयोपभोग एवं कषाय
परवश्ता का त्याग करे। चूंकि ये दोनों सबसे बड़े प्रमाद है और प्रमाद आत्मा का
भयंकर एवं बड़े से बड़ा शत्रु है।
जिनेश्वर भगवंतों ने दान, शील तप एवं भाव इस तरह चार प्रकार का धर्मपुरुषार्थ
भी बतलाया है। यह चतुविध धर्म गृहस्थ जीवन का श्रंगार है शोभा
है उसमें भी शीलधर्म तो सर्वोपरि है। रत्नजटी, सुरसुन्दरी की भांति शील धर्म
का जतन करने वाला मनुष्य परम सुख को प्राप्त करता है।
गुरुदेव, यह सुरसुन्दरी कौन है ? वत्स, यह जो गुणवती नारी तेरे पास बैठी है
वही सुरसुन्दरी है। रत्नजटी पल दो पल तो स्तम्भ रह गया । गुरुदेव के श्री मुख
से प्रश्नशित सुरसुन्दरी को उसने हाथ जोड़कर सर झुका कर प्रणाम किया। रत्नजटी
हर्ष से गदगद हो उठा। ओह मुझे विश्व की श्रेष्ठ नारी बहन के रूप में अनायास
प्राप्त हो गई है। सुरसुन्दरी ने विनयपूर्वक मुनिराज से पूछा: गुरुदेव अभी
मेरे पापकर्म कितने बाकी हैं ? कहा तक मुझे इन पापकर्मो का भुगताना पड़ेगा…?
आगे अगली पोस्ट मे…