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आदमी का रूप एक सा – भाग 5

‘आप सही है….देवी ! मेरे पिता राजा है….और मेरे पति एक धनाढ्य श्रेष्ठि हैं |’ सुरसुंदरी ने कहा
‘तो फिर तू निराधार हुई कैसे ? यहाँ कैसे आ पहुँची ? यदि तुझे एतराज़ न हो तो मुझे सारी बात बता ।’
सुरसुंदरी ने अपनी सारी जीवन कहानी कह सुनायी मदनसेना से । सुनते सुनते मदनसेना ने कई बार अपनी आंखें पोंछी….सुरसुंदरी के प्रति हार्दिक सहानुभूति वयक्त करते हुए उसने कहा :
‘बहन….तेरे शील को बचाने के लिये तू सरोवर में कूद गयी….कितना साहस है तुझ मे ? शीलरक्षा के लिये तूने कितने कष्ट उठाये….? और तु यहाँ कैसे स्थान मे आ फँसी हो ? महाराजा तुझे रानी बनाने का इरादा रख रहे है ।’
‘नहीं, नहीं, यह कभी नहीं हो सकता….महारानी !’
‘यह तो मैं समझ चुकी हूं | तू दांतो तले जीभ दबाकर मर जायेगी….पर राजा की इच्छा के अधीन नहीं होगी |’
‘अब तो वैसे भी जीने की मेरी इच्छा ही नहीं है….जी कर करू भी क्या ? पर मौत भी कहां आती है ? मरने जाती हूं तो किसी न किसी बहाने से बच जाती हूं।’
‘इतनी निराश मत हो । नवकार मंत्र के प्रभाव से तेरे पति से जरुर मिलना होगा तेरा ।’
‘कैसे होगा मिलना ? मैं यहाँ फंस जो गई हूं ?’
‘इस आफत से में तुझे छुङवा दूंगी….सुन्दरी |’
‘क्या कह रही हो देवी ! तो तो मैं आपका उपकार कभी नहीं भुलूंगी….मेरे पर कृपा करो….मुझे यहां से मुक्त कर दो |’
‘धीरे बोल….दीवार के भी कान होते हैं |’

आगे अगली पोस्ट मे…

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