‘वेधराज, हम देवी लीलावती के भवन से आ रहे है | देवी ने कहलवाया है की यह नवागन्तुक सुंदरी के दर्द को जानकर उसका उपचार करने का है |’
सरिता ने वेधराज को नमन करके विनयपूर्वक निवेदन किया |
‘अच्छा, तुम भीतर के कमरे में बैठो, मै जरा अपने नित्यकम से निपट कर देख लुगा |’
‘यदि आपको विलंभ होने वाला हो तो इस सुंदरी को मे यही पर छोड़ कर जाऊ ! फिर वापस आ जाऊगी इसे ले जाने के लिये |
‘ठीक है….तुझे जाना हो तो बाद में वापस आ जाना |चुकी मुझे देर तो लगेगी ही |’
सुंदरी के सामने देखकर सरिता ने जाने की इजाजत मागी | सुंदरी ने मोन इजाजत दी | इशारे से जंगल का रास्ता दिखा कर सरिता वहा से तेजी से चल दी |
सुरसुंदरी ने बारी में से दूर दूर तक फैले हुए जंगलो को देखा | पेड़ों के झुरमुट थे….छोटी मोटी पहाड़िया…नदी नाले…दिख रहे थे | दो~तिन कोस निकल जाने पर किसी की निगाहों में आने का डर नही था | जगलो के उस पार ओझल हो जाना हो जाना सरल था |
नित्य क्रम से निपट कर वयोवृद्ध वेधराज सुरसुन्दरी के पास आये |
‘कहो….बेटी….क्या तकलीफ है ?’
‘पितातुल्य वैधराज ! मेरी तकलीफों का अंत नहीं है | पति द्वारा त्यक्त और इस वेश्या के हाथो बिकी में एक राजकुमारी हूँ | आपकी शरण में आयी हु | मुझे बचा लीजिये !’
‘बेटी , में तो एक वैध हूँ |’
‘मैं जानती हूँ….गुप्तरोग का मेरे बहाना है | मुझे दरअसल मै तो यहाँ से फरार हो जाना है | मै अपनी जान देकर भी मेरे शील का जतन करना चाहती हूँ | मै आपकी एक सहायता चाहती हूँ |’
‘बोल बेटी ! क्या करू मै तेरे लिए ? तू इतना सहन कर चुकी है….बेटी..क्या करू ? मेरा तो पेशा है, फिर भी तू बोल, मै क्या कर सकता हूँ ?’
‘मै यहाँ से भाग रही हूँ | लीलावती तलाश करने के लिए यहाँ आयेगी | आप उसे इतना यदि कहे की ‘वो कहा गयी….मुझे मालूम नहीं है….मैंने तो उसे जाचकर दवाई दे दी थी….फिर वह चली गई |’
‘अच्छा….बेटी ! तू अब यहाँ से शीघ्र चली जा |
परमात्मा तेरी रक्षा करेगे | आखिर तो सत्य ही विजयी होता है |’
आगे अगली पोस्ट मे…