मुझे यहाँ से जल्द से भाग जाना चाहिए। बड़ी चतुराई से भागने की योजना बनानी होगी… मेरा मन तो कहता है कि शायद यह परिचारिका मुझे उपयोगी हो सके ! इसकी आँखों मैं मेरे लिए सहानुभूति दिख रही थी।पर क्या पता… वह कुछ और ही सोच रही हो : ‘यह नई आई हुई स्त्री इस भवन की मुख्य वेश्या होने वाली हैं…. मै इसके साथ अभी से अच्छा रिश्ता कायम कर लूं तो बाद में यह मुझे मालामाल कर देगी और मेरा रुबाब भी रहेगा औरो पर । इस दुनिया में बिना किसी स्वार्थ के कौन तो स्नेह करता है… और कौन सहानुभूति जताता है ? फिर भी आज जब वह आएगी तब में गोल-गोल बात करके देखूंगी …पूरे भरोसे के बगैर तो भागने का नाम नही लुंगी….अन्यथा वह सीधी ही जाकर लीलावती को बता दे कि यह नई औरत भागने की फिराक में है। तब तो मुझे इसी कमरे में फाँसी खाकर मरना पड़े।
हालांकि जीने की अब मेरी रुचि ही नही है। किसके लिए जीने का ? अब शायद अमर मिले भी नही … इत्तफाक से मिले भी जाय और में उसके पास जाऊ, फिर भी वह मुझे दुत्कार दे तो ? क्या पता उसने किसी अन्य स्त्री के साथ शादी कर ली होगी तो ? पुरूष पर भरोसा कैसे किया जाए ? पर इस तरह मै कब तक भटकती रहूंगी? और अनजान देश- प्रदेश में अपने शील की सुरक्षा कैसे करुँगी ? उस नराधम फानहान ने मुझे कैसी फसायी ? मीठी-मीठी बाते करके मुझे नगर में ले आया और फिर बीच- बाजार में खड़ी कर दी, बिकाऊ माल की तरह। मेरा नीलाम किया….वो भी एक वेश्या के हाथों । कितनी बदनसीबी है मेरी ? क्या मेरी बदनसीबी का कोई अन्त ही नही है ? कोई सीमा ही नहीं है ? कभी भी नहीं सोची हुई परिस्थिति के पाश में आ घिरी हु ! मेने अपने गत जन्मों में कितने पाप किये होंगे ? ऐसे कैसे कर्म बांधे होंगे ? और यदि इतने ढेर सारे पाप ही पाप किये हैं तो फिर मेरा जन्म राजपरिवार में क्यो हुआ ? क्यो में शम्भ्रात श्रेष्ठ परिवार की बहू बनी ? इतनी खूब-सुरती क्यों मिली मेरे को ? शील व सदाचार के ऊँचे सँस्कार क्यो मिले ? सभी पाप कर्म एक साथ क्यो उदय में नही आये ? ठीक है, यदि कोई रास्ता सूझता है यहाँ से भागने का.. तब तो ठीक है … वरना फिर इसी कमरे में कल रात को अपने गले मे फाँसी खाकर अपने प्राण त्याग दूँगी।शील की सुरक्षा तो किसी भी कीमत पर करूगी ही।
आगे अगली पोस मे…