अंधियारे आकाश का साया था सर पर ।
मुसलाधारा पानी बरस रहा था । बरसात की घनघोर रात उत्तर आयी थी । ऐरेगोरों के दिल फट पड़े वैसी बिज – लियां चमक रही थी। महासागर की तूफानी तरंगे ऊँची – ऊँची उछल रही थी । सगर्भा स्त्री का प्रसव हो जाय उतनी भयानक गर्जना उठ रही थी समुद्र में ।
टूटे हुए जहाज का एक पटिया सुरसुन्दरी के हाथों लग गया । उसने पटिये को अपनी बाहों में भींच लिया । पटिये के साथ साथ वो भी महासागर में उछलने लगी । उसका मन निरंतर श्री नवकार महामंत्र के स्मरण में लीन था । उसे अपनी जान की परवाह न था । उसे अपने शील के बचने का अपार आनन्द था । धनजंय के जहाज को उसने कटे वुक्ष की भाँति टूटते हुए देखा था और टूटे जहाज को जलसमाधि लेते हुए भी देखा था ।
धीरे धीरे सागर शांत हो गया ।
शांत सागर के पानी पर सुरसुन्दरी बेसुध होकर तैर रही थी । लंबे पटिये को अपने सीने से जकड़ कर वो आँधी सो गयी थी , पटिया पानी के बहाव में चला जा रहा था ।
जब सुंदरी की आंखे खुली तो उसने अपने आपको एक नगर के किनारे की रेत में पड़ा हुआ पाया । पटिया किनारे की रेत में दब सा गया था । वो तुरन्त खड़ी हुई। उसके कपड़े जगह जगह से फट गये थे। गीले थे । कीचड़ से सन गये थे । वह किनारे पर खड़ी रह गई । हवा में वह अपने कपड़े सुखाने। की कोशिश करने लगी ।
‘यह कौन सा नगर होगा ? जाऊं इस नगर में…?पर अंजान नगर में मैं जाऊंगी कहां पर । फिर कहीं नयी आफत…? आने दू आफत को । वैसे भी अब आफत आने में और तो बाकी क्या रहा है ? समुद्र में कूदकर आफत का सामना किया है तो फिर इससे ज्यादा और कौन सी आफत चली आयेगी ? यहां खड़े रहने से तो मतलब भी क्या ?’
सुरसुन्दरी चलने लगी नगर की तरफ । वह नगर था बेनातट । नगर के मुख्य दरवाजे में उसने प्रवेश किया । इतने में नगर में जोरदार कोलाहल सुना उसने। मुख्य रास्ते पर एक भी आदमी नजर नहीं आ रहा था । इर्दगिर्द के मकानों में से लोग चीख रहे थे ।
‘अरे, ओ औरत। भाग …
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