सुरसुन्दरी भी चतुर थी । एक अनजान परदेशी के साथ समुद्री यात्रा के भ्यस्थान से वह परिचित थी । और फिर वह खुद पति बिना की युवती थी पुरुष की कमजोरी से वह भली भांति परिचित थी । इसलिये उसने श्रेष्टि से कहा :
‘आप यदि मुझे सिंहल द्विप तक ले चलेगे तो मै आपका उपकार नहीं भूलूंगी । पर मेरी एक शर्त आप यदि मानें तो ही मैं आपके साथ आ सकती हूं ।’
‘कौन सी बात ? जो भी कहोगी…. मैं जरूर मानूंगा।’
श्रेष्ठि को स्वर्ग करीब खिसकता नजर आया ।
‘या तो तुम्हें मुझे अपनी बहन मानना होगा .. या फिर बेटी मानना होगा। मेरे पति के अलावा दुनिया के सभी पुरुष मेरे लिये या तो भाई हैं… या पिता हैं।’
‘तुम्हारी बात मुझे मंजूर है । तुम चलो मेरे साथ , यहां से अपन को जल्दी जल्दी निकलना है ।’
‘तो मैं उपवन में जाकर अभी वापस आयी … तुम मेरी प्रतीक्षा करोगे न ?’
‘बिल्कुल। तुम जाओ .. अपना जो कार्य निपटाना हो निपट कर चली आओ ।’
‘तुम्हारा बड़ा एहसान।’ सुरसुन्दरी ने श्रेष्ठि को सर झुकाकर प्रणाम किया और जल्दी जल्दी चलती हुई वह उपवन में आ पहुँची । चूंकि उसे यक्षपिता की इजाजत लेनी थी ।
जैसे ही वह उपवन में प्रविष्ट हुई कि यक्षराज प्रभट हुए और बोले : ‘बेटी…आज तू चली जायेगी न ।’
‘जी हां , एक साथ मिल गया है … एक सेठ जहाज लेकर सिंहल द्विप की ओर जा रहे है ।’
‘मैं जानता हूँ…’
‘मैं आपकी इजाजत लेने के लिये आयी हूँ ।’
‘मेरी अनुमति है … पर…।
‘प्ररन्तु क्या , यक्षराज ?’
‘समुद्री रास्ते की यात्रा है …. साथ भी अनजान है …
इसलिये पूरी सजग रहना बेटी ।’ यक्षराज की आवाज गीली हो गयी ।
‘आपका हाथ मेरे सर पर है … फिर मुझे चिन्ता काहे की ?’
‘बेटी … दरअसल में मैं चाहने पर भी तेरे साथ नहीं रह सकता । तू जब इस द्विप को छोड़कर आगे बढ़ेगी … तब फिर मैं तुझे न तो देख सकुंगा न ही सहायक बन सकुंगा , चूंकि मेरा अवधिज्ञान इस द्विप तक ही सिमित है ।’
‘ठीक है … पर आपके अंत : कारण के आशीर्वाद तो मेरे साथ है न ? फिर … श्री नवकार महामंत्र तो मेरे दिल में है ही । उसके अचिन्त्य प्रभाव से मेरा शील सुरक्षित ही रहेगा ।’
‘जरूर … जरूर, बेटी । महामंत्र नवकार तो सदा तेरी रक्षा करेगा ही । मेरे जैसे क्रूर दिल के यक्ष को जिस महामंत्र ने बदल दिया … वह महामंत्र तो अदभुत है ।’
‘आप मुझे आशीर्वाद दें … ताकि मैं किनारे पर पहुँच जाऊं ।’
‘मेरे दिल के तुझे अंनत अंनत आशीर्वाद है , बेटी ।
प्रसन्न मन से यात्रा करना । तुझे बहुत जल्द तेरे पति का संयोग हो जाय यही मेरी दुआ है ।’
यक्षराज ने सुरसुन्दरी के मस्तक पर हाथ रखा और सुरसुन्दरी प्रणाम करके समुद्रकिनारे की ओर चली ।
श्रेष्ठि सुरसुन्दरी की राह तक रहा था ।
‘मुझे आने में थोड़ी देर हो गयी …. नहीं ? क्षमा करना ।’ सुरसुन्दरी ने श्रेष्ठि से क्षमा माँगी।
‘नहीं … नहीं … कोई देर नहीं हुई । वैसे अभी अभी तो मेरे आदमी भी पानी भर कर जहाज में चढ़े है । अब अपन जहाज में चढ़ जायं । ताकि समय पर यहां से निकल जायं ।’
सुरसुन्दरी को जहाज में चढ़ाते समय श्रेष्ठि ने उसकी बाँह पकड़ कर सहारा दिया । सुरसुंदरी के शरीर का स्पर्श होते ही श्रेष्ठि सिहर उठा । सुरसुन्दरी तो उत्साह में थी। उसके दिमाग में अमरकुमार से मिलने की तमन्ना उछल रही थी। उसे खयाल भी नहीं रहा … श्रेष्ठि के स्पर्श का।
आगे अगली पोस्ट मे…