निरी क्रूरता व् भयानकता से भरी थी वह आक्रति | उस आक्रति की डरावनी आँखे सुरसुंदरी पर स्थिर न हो सकी | उसकी आँखे चुं धिया जाने लगी |
वह आक्रति थी यक्ष की , मानवभक्षी यक्ष की |
महामंत्र नवकार की ध्वनी उसके श्रवण पुट पर गिरी।
उस दिव्य ध्वनी में यक्ष की कुरता का बर्फ पिघलने लगा | उसके दिल में प्रश्न जगा | उसने निकट जाने की इच्छा की….पर वह न जा सका। सुर सुंदरी का तेज लिए असह हुआ जा रहा था | वह खड़ा ही रहा |
सुर सुंदरी ने 108 बार नवकार मंत्र का जाप किया और आँखे खोली | उसने यक्ष के सामने देखा | यक्ष नजदीक आया | उसके भीतर में वत्सलता का झरना बहने लगा | कोमल भीगे स्वर में उसने पूछा :
‘बेटी , तू कौन है ?इस व्दीप पर अकेली क्यों है ?’
औ पिता के सामान यक्षराज !
जीवात्मा के पाप कर्म जब उदय में आते है तब स्नेही भी शत्रु हो जाता है….मेरा पति मुझे अकेली यहाँ छोड़ कर चला गया है|’
‘तेरा कोई अपराध ?’
‘अपराध तो हुआ था बचपन में, सजा हुई है जवानी में |’
‘बेटी तू यहाँ निर्भय है | मेरा तुझे अभयवचन है|’
‘है यक्षराज !अब मुझे कोई और किसी का भी भय नहीं है ! चुकी अब मुझे इस जीवन की भी स्प्रहा नहीं है। नहीं है | अब मुझे आप अपना भक्ष्य …’
नहीं….बेटी…नहीं !
तू’तो पुण्यशाली नारी है। मैंने तेरा तेज देखा है। तेरे पर तो देवी कृपा है। तुझे कोई नहीं मार सकता | अरे तुझे कोई छु भी नहीं सकता ….पर इ क बात कहू ? तू अभी जिस मंत्र का जाप कर रही थी….वह मंत्र मुझे बताएगी ?मुझे वह मंत्र बहुत अच्छा लगा | मै तो सुनता ही रहा |’
आगे अगली पोस्ट मे…