सुन्दरी और अमरकुमार दोनो अपने शयनकक्ष में आये। परिचरिक ने कक्ष में दिये जलाकर रख दिये थे।
कपडे बदलकर सुन्दरी अमर के सामने जमीन पर बेठी थी | अमरकुमार सुन्दरी के चेहरे पर निगाह बिछाये बेठा था | सुंदरी शर्माने लगी….
उसने पूछा:
‘क्यों खामोश हो? ’
‘सोच रहा हु !’
‘ओह ! सोच रहे हो या देख रहे हो?’
‘क्या सोच रहे हो ?
तू साथ आयीं यह ठीक हुआ |’
‘पर तुम तो बिल्कुल ही इन्कार कर रहे थे न साथ ले चलने के लिए?’
‘अरे बाबा ! इसलिए तो कह रहा हूँ….मैंने मेरी जिद छोड़ दी और तूने जिद पकड़ राखी है- वह अच्छा हुआ !’
‘यह सब इस यात्रा में ठीक लगता हें….सिहलव्दीप पहुँच कर व्यापर में उलझे की….फिर!’
‘ऊंहु ….तब भी नापसंद नहीं होगा तेरा साथ आना !’
‘दिन भर धंधे –धापे में उलझकर जब शाम को घर लोतुगा तब तेरा सानिध्य पाकर मेरी थकन उतर जायेगी ! ऊबाहट दूर हो जाएगी !’
‘मै अपने आपको खुशकिस्मत समजती हूँ ?
जिन्दगी को अंतिम क्षणों तक मै तुम्हे सुख देती रहू….आनन्द व प्रसन्ता देती रहू….आत्मकल्याण में सहयात्री बनूं….यही मेरा जीवन बना रहे | यही तो मेरी इच्छा है?’ सुन्दरी का स्वर भीगने लगा | अमर कुमार का दिल भी खिल उठा |
‘सुर…. एक विचार कोधता है कभी कभी दिमाग में !’
‘वो क्या ?’
‘किसी ज्ञानी महापुरुष का मिलना हो तो मुझे इतना तो पुछाना ही है की हमारा इतना गहरा स्नेह संबंध कितने जन्मो का है ?’
‘और में पुछुगी की ‘प्रभो, हमारा यह भीतरी नाता निर्वाण तक अखंड रहेगा न ?’
‘जी, नहीं रह सकता !’
‘मै आपसे से थोड़ी ही पुछ रही हूँ ?’
‘क्यों में क्या विशिष्ट ज्ञानी नहीं हूँ ?’
‘आप ज्ञानी जरुर है पर परोक्ष ज्ञानी….नहीं की प्रत्यश ज्ञानी !
‘फिर भी मै इतना तो जरुर कह सकता हूँ की यदि अपना मोक्ष होने वाला होगा तो फिर यह रिश्ता नहीं रहने का |’
‘पर क्यों?’
‘चूंकि, अपना रिश्ता रागजन्य है….रागदशा जब तक हो तब तक वीतराग दशा प्राप्त नहीं हो सकती | रागदशा ख़त्म हो तब ही वीतरागता प्राप्त हो सकेगी |
‘यह बात तो आपकी बिलकुल सही है….की राग जाय वीतरागता आये….पर मेरा कहना तो यह है की राग जाय और द्वेष नहीं आ जाना चाहिए |’
‘राग है तो कभी न कभी द्वेष के चले आने की सम्भावना तो रहेगी ? राग व् द्वेष तो जिगरी दोस्त है न ?’
‘कैसे ?ये दोनों तो परस्पर विरोधी तत्व है |’
;फिर भी एक के बगैर दुसरे का अस्तित्व नहीं है |’
आगे अगली पोस्ट मे…