धनावह सेठ ने कहा : ‘मैंने भी उस रास्ते के मेरे परिचित व्यापारी श्रेष्ठियों को समाचार भिजवा दिये हैं ।’
‘प्रयाण कब करने का है ?’ महाराजा ने पूछा ।
‘अक्षयतृतीया के दिन ।’
‘अच्छा दिन है ।’
‘विदेशयात्रा सफल होगी ।’
‘जल्दी जल्दी वापस आये …. अपन ऐसी ही कामना करें । ‘
अक्षयतुतीया का मंगल दिन आ पहुंचा ।
समुद्र में सुन्दरी बारह जहाज सज्ज होकर खड़े थे.
जहाजों में कीमती सामान भरा हुआ था । नाविक नोकर – चाकर …. और मुनीम लोग जहाज में बैठ चुके थे।
अमरकुमार व सुरसुन्दरी को विदा देने के लिये चंपानागरी के हजारों स्त्री-पुरुष समुद्र के किनारे पर एकत्र हुए थे । महाराजा और महारानी … सेठ और सेठानी … मौन थे । स्वजनवीरह की व्यथा से वे बेचैन थे ।
अमरकुमार प्रसन्न था ।
सुरसुन्दरी भी हर्षविभोर थी ।
‘विजयमुहूर्त’ की प्रतीक्षा हो रही थी । अमरकुमार की चन्द्रनाड़ी चल रही थी …. शुभ शकुन हो रहे थे … पक्षियों की मधुर ध्वनि गूंज रही थी … सागर की तरंगें नाच रही थी ।
सुरसुन्दरी पंचपरमेष्टि भगवंतों के स्मरण में लीन थी । रतिसुन्दरी व धनवती सुरसुन्दरी की दोनों और खड़ी रहकर शुभकामनाएं व्यक्त कर रही थी …. कभी शंका – कुशंका में भी घिर जाती थी ।
राजपुरोहित ने पुकारा : मुहूर्त का समय आ चुका है । पावन कदम बढाइये … जहाज में आरूढ़ होइये।’
सुरसुन्दरी के साथ अमरकुमार ने नोका में पदार्पण किया । लोगो ने जयध्वनी की । नोका बड़े जहाज की और सरकने लगी। और कुछ ही पल में जहाज के निकट पहुँच गयी। दंपति जहाज में आरूढ़ हुए … और जहाज ने गति की ।
‘आइयेगा… जल्द वापस लौटियेगा…’
‘खुश रहना … कुशलता से रहना …’ की आवाजें धीरे धीरे सुनायी देनी बंद होने लगी। किनारे पर खड़े हजारों स्त्री पुरुष हवा में हाथ हिलाते रहे। तब तक वहीँ खड़े रहे , जब तक जहाज दिखायी दिये…।
सुरसुन्दरी एवं अमरकुमार भी चंपा को देखते रहे .. जब तक उन्हें चंपा की प्राचीर दिखायी देती रही । सब कुछ धुंधलके में आवरित होता गया … एक गहरा धुंधलका अमरकुमार – सुरसुन्दरी को निगलने के लिये तैयार होकर धीरे धीरे उनकी ओर बढ़ रहा था ।