बेटी, पंचपरमेष्टि भगवंत सदा तेरा रक्षा करे … ऐसी शुभकभना करती रहूँगी… मैं तेरी राह देखूंगी … बेटी … तू भी कभी तेरी इस मां को याद करना ….’
रतिसुन्दरी की आंखों में आंसू की बाढ़ आ चुकी थी।
राजा एवं रानी दोनों रथ में बैठकर अमरकुमार से मिलने के लिये धनावह श्रेष्ठि की हवेली पर आये । सेठ व सेठानी ने दोनों का यथोचित स्वागत किया । अमरकुमार ने भी आदर व्यक्त किया ।
राजा ने कहा : ‘कुमार … विदेश जाने का निर्णय तुमने कर ही लिया है , इसलिये ‘तुम विदेश मत जाओ’ ऐसा कहकर तुम्हारे उत्साह को तोडूंगा नहीं । तुम्हारे रास्ते में विध्न नहीं करना है । परन्तु , सुरसुन्दरी भी तुम्हारे साथ जाने के लिये तत्पर बनी है …. हमारी वह इकलौती बेटी है … यह तुम जानते ही हो उस पर हमारी अपार ममता है … यह भी तुम्हारे से छुपा नहीं है ।
‘कुमार, तुम्हारे पर पूरी श्रद्ध एवं पूरा भरोसा रखकर हमने हमारी बेटी तुम्हें सोंपी है । हमारा तो वह जीवन है .. उसके सुख में हम सुखी … उसके दुःख में हम दुःखी।
परदेश का सफर है … लम्बा सफर है । कभी सुरसुन्दरी कुछ गलती कर बैठे तो उसे माफ़ कर देना । कभी भी उसे अलग मत करना । देखना , कहीं उसे धोखा न हो जाय ।’ राजा रो पड़े । रानी की भी सिसकियाँ सुनायी देने लगी ।
अमरकुमार ने कहा : ‘हे ताततुल्य । आप निशिचत रहें , आपकी शुभकामनाओं से हमारी विदेशयात्रा निर्विध्न बनेगी …. हम दोनों का पारस्परिक प्रेम भी अखंड रहेगा ।’
‘मैं सिंहलदीप तक के रास्ते में आने वाले राज्यों में मेरे परिचित राजाओं को संदेश भिजवा देता हूँ … तुम जहाँ भी जाओगे वहां तुम्हें सब तरह की सुविधाएं मिल जायेगी। व्यापार में भी सफलता मिलेगी ।’
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