अमर ने सोचा -मन व्याकुल तो होगा पर मै मन पर काबु पालुगा। मै मन को समझा लुगा। वेसे तो पिताजी का भी कितना प्यार है मुझ पर। मै उनसे जब विदेश जाने की बात करूँगा उन्हें आघात भी लगेगा पर मुझे उन्हें संमभालना होगा। वे नहीं मानेंगे तो .. तो क्या मै खाना पीना छोड़ दुँगा। मै अब चंपा में नहीं रह सकता मेरा दिल ऊब गया है। अब यहाँ से मुझे सागर बुलावा दे रहा है। सिंहलदिप मुझे पुकार रहा है। अमर तु पुरी तरह से सोच लेना बराबर पुख्तता से विचार कर लेना।तेरी कही हँसी न हो जनता में। उसका भी विचार कर लेना और जब तेरे विदेश जाने की बात राजा रानी जानेंगे तब वे भी तुझे नहीं जाने देगे। वे तुझे जरूर रोक लेगे ।कही तु अनुनय से लाज में शरम से भावुकता से तेरा संकल्प न बदल दो। जरा सोच ले एक बार फिर गोर से।
नहीं बिल्कुल नहीं मेरा निर्णय अंतिम रहेगा। मेरु जैसा अड़िग रहेगा। अब मुझे कोई नहीं रोक सकता। मै जरूर जाऊँगा। मै नही रुक सकता और वह विचारो के आवेग से पलंग पर खड़ा हो गया रजत के प्याले को ठोकर लगी। प्याला गिर गया। आवाज हुई तो सुरसुन्दरी जग गयी। अरे आप तो अभी जग रहे है? क्यों क्या हुआ? आप खड़े क्यों हुए? सुरसुन्दरी एक ही सांस में खड़ी हो गयी पलंग पर से नहीं युही खड़ा हुआ था। भरोखे में जाकर बरसती चांदनी का आहाद लेने की इच्छा हो आयी। चलिये में भी आती हुँ।।
आगे अगली पोस्ट मे….