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कशमकश – भाग 1

मानव का मन कितना अजीबो-गरीब है। कभी वह कामपुरुषार्थ के पीछे पागल बन जाता है तो कभी अर्थ पुरुषार्थ के लिये उतावला हो जाता है। कभी फिर ऐसा भी मोड़ आ जाता है कि अर्थपुरुषार्थ एवं कामपुरुषार्थ दोनों को छोड़कर सर्वस्व त्याग करके मनुष्य धर्मपुरूषार्थ में लीन-तलालिन हो जाता है ।
अमरकुमार के दिल में अर्थपुरुषार्थ की कामना दिन-ब-दिन प्रबल हुई जा रही थी। हालाँकि, उसे वैषयिक सुख अच्छे लगते थे , सुरसुन्दरी के प्रति उसके दिल में असीम प्यार था , राग था , आसक्ति थी , फिर भी उन सब से बढ़कर उसकी ‘आप कमाई ‘ का पैसा पैदा करने की तमन्ना प्रबल हो उठी थी । कुछ दिन तक तो उसके भीतर जोरों का वैचारिक संघर्ष भी चला ।
‘उत्तम पुरुष तो वह है कि जो अपने बलबूते पर खड़ा होकर संपति प्राप्त करे। पिता की दौलत पर अमन-चमन उड़ाने वाला पुत्र तो निकुष्ट गिना जाता है। मैं जाऊँगा परदेश ….जरूर जाऊँगा। मेरे बाहुबल से संपति प्राप्त करूँगा ।’
‘परन्तु , सुरसुन्दरी के बगैर … उसे मेरे पर कितना प्यार है? परदेश में तो उसे साथ नहीं ले जाया जा सकता। मेरे पैरों में उसका बन्धन हो जाये। मुझे उसका पूरा ध्यान भी रखना पड़े । मुक्त – रूप से मैं व्यापार न कर सकू। नहीं , मैं उसे साथ तो नहीं ले जा सकता। उसके बगैर …. ‘अमर …. स्वपुरुषार्थ से संपति पानी है … विदेशों में घूमना है …. सागर की सफर करना है तो पत्नी का प्यार बिसारना होगा …। मन को ढीला बनाने से काम कैसे होगा ? कठोर हो जा … यदि जाना ही है तो ।’
‘उसका त्याग करके यदि चला जाऊँगा तो उस पर क्या गुजरेगी ? क्या यह मेरा उसके साथ धोखा नहीं होगा ? उसने मेरे पर कितना भरोसा रखा है ।’
‘ऐसे विचारों की जाल में मत उलझ , अमर । तू कहाँ परदेश में ही रह जाने वाला है ? कुछ बरसों में तो वापस लौट आयेगा… क्या एक दो साल भी वो तेरी प्रतीक्षा नहीं कर सकती ?’
‘वह प्रतीक्षा तो करेगी …. जरूर करेगी… पर यहाँ से चलने के बाद उसकी याद ने मुझे परेशान कर दिया तो ? मेरा मन चंचल हो उठा तो ? कहीं मैं बीच से ही वापस न लौट जाऊँ…?’
हं , अं…. तेरे मन को पूरी तरह परख ले! प्रेमभरी पत्नी का विरह तू सह पायेगा! साथ ही साथ मां का विचार करले , इधर वो तेरे विरह में और उधर तू मां की याद में …. व्याकुल तो नहीं हो जायेगा न ?’

आगे अगली पोस्ट मे…

जीवन जैसे कल्पवृक्ष – भाग 7
May 24, 2017
कशमकश – भाग 2
May 29, 2017

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