सास एवं बहु!
जैसे माँ और बेटी!
स्नेह का सेतु रच गया। अपने सुख की कोई परवाह नही! माँ बहु के सुख को बढ़ाने का सोच रही है,,, बहु माँ को ज्यादा से ज्यादा सुख देने का सोच रही है। दोनों का प्रेम वही दोनो का सुख! पूजन,भोजन….. स्नेहमिलन…इत्यादि में ही दिन पूरा हो गया। कब सूरज पुरब से पश्चिम की गोद में ढल गया, क्षितिज में डूब गया… पता ही नहीं लगा। दियो की रोशनी से हवेली जगमगा उठी। एक एक कमरे मैं रत्नों के दिए जल उठे धनवती ने सुंदरी को उसके शयनखंड में भेजी। जाती हुई सुन्दरी को देखकर धनवती मन ही मन बोल उठी ‘सचमुच, मेरा जीवन तो कल्पवृक्ष सा बन चुका है।….कितना सुख ? इससे संसार में और हो भी क्या सकता है?
बस, यही तो भुल है,,,,
गम्भीर भूल है सरल और भोले-भाले ह्रदय की।वह सुख को जीवन का पर्याय मान बैठता है,,,, जहाँ उसे कोई तन-मन का एकाध मनचाहा सुख मिल जाता है,,,और वह जीवन को कल्पवृक्ष मान बेठता है। पर जब कल्पवृक्ष का पर्याय बदल जाता है,,,कंटीला बबूल बन जाता है तब वह भोला ह्रदय चीखता है चिल्लाता है….करूणा आक्रन्द करता है। मानव की यह कमजोरी आजकल की नही अपितु इस संसार जितनी ही पुरानी है।
आगे अगली पोस्ट मे…