अमरकुमार एवं सुरसुरन्दरी।
बचपन के सहपाठी आज जीवनयात्रा के सहयात्री बन चुके थे। पति-पत्नी बने हुए थे। सहजीवन जीनेवाले बन गए थे।अमरकुमार में यदि पराक्रम था तो सुरसुरन्दरी में नम्रता की शीतलता थी। अमरकुमार यदि पौरूषत्व का पुंज था तो सुरसुरन्दरी समर्पण की मूर्ति थी।अमरकुमार यदि मूसलाधार बारिश था तो सुरसुरन्दरी शुभ फलदा धरित्री थी।
हवेली के दरवाजे पर बजने वाली शहनाई के सुर जब मद्धिम हुए… तो हवेली के उस भव्य खण्ड में भीतरी स्नेह की शहनाइयो के सुर छलकने लगे । वहां मात्र दैहिक आकर्षण नही था, पर एक दूजे के गुणों का खिंचाव था। वहां केवल व्यक्तित्व की वासना नहीं थी वरन् अस्तित्व की उपासना थी । फिर भी संकोच था , झिझक थी , मौन था, खामोशी थी, आखिर अमर ने खामोशी के परदे को उठाते हुए कहा :
सुन्दरी !’
सुन्दरी ने अमर के सामने देखा ।
‘तेरी श्रद्धा फलीभूत हुई न ?’
‘नहीं, अपनी श्रद्धा फलवती बनी ।
‘इच्छा तो थी , मुझे आशा न थी ।’
‘ कोई गतजन्म का पुण्य उदय में आ गया ।’
‘एकदम प्रसन्न हो न ?
‘हां पर …. ‘
‘पर क्या ? सुन्दरी ।’
‘वह प्रसन्नता यदि अखंड रहे तो,’ ‘
अखंड रहेगी तेरी प्रसन्नता । निश्चिंत रह ।’
‘ आपके सहवास में तो मैं निश्चिन्त ही हूं, स्वामिन ।’ ‘ तेरे पास तो श्रद्धा का बल है, ज्ञान का प्रकाश है, शील की रखवाली है, तेरे चरणों मे तो देवलोक के देव भी झुकते हैं । ‘ ऐसा मत कहिए, मेरे मन तो आप ही मेरे सर्वस्व हो ।’ नवजीवन का यह पहला स्नेहालाप था । उस स्नेहालाप में भी श्रद्धा , ज्ञान और समर्पण का अमृत घुला हुआ था ।