सुरसुन्दरी माँ के पास पहुँची। माँ! मुझे सोने के थाल में उत्तम फल, अच्छी मिठाई रखकर दे … में परमात्मा के मंदिर जाऊगी ।’
‘ लौटते वक्त बेटी ,गुरुदेव के उपाश्रय में भी जाना गुरुदेव को वंदना कर आना ।’
‘और वहाँ से साध्वी जी सुव्रता के उपाश्रय में जाकर लोटूगी ।’
रातिसुन्दरी ने थाल तैयार किया । दासी को साथ मे जाने की आज्ञा की । सुरसुन्दरी थाल लेकर दासी के साथ रथ में बैठ कर जिन मंदिर में पहुँची ।
वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा के दर्शन करते करते वह गद – गद हो उठी। उसका रोया रोया उठा पुलक उठा । उसकी पलको पर हर्ष के आंसू मोती की भांति दमकने लगे । उसने मधुर स्वर से स्तवना कि । परमात्मा के समक्ष फल और नैवेद्य समर्पित किये ।
ह्दय में श्रद्धा एवं भक्ति का अमृत भर के सुरसुन्दरी गुरुदेव के उपाश्रय में पहुँची। विधि पूर्वक वंदना की। गुरुदेव ने धर्मलाभ का आशिर्वाद दिया। सुरसुन्दरी नतमस्तक होकर खड़ी रही । गुरुदेव बोले : मुझे समाचार मिल गए है वत्से ! जिनशासन को उनदोनो ने पाया है… समझा है , परखा है , इस तरह जीना की जिससे स्वपर का कल्याण हो …. और जिनशासन की अपूर्व प्रभावना हो। तू सुज्ञ है …. ज्यादा तो तुझे क्या कहुँ? संसार -दावानल की ज्वालाएं तूझे जलाये नही … इसके लिए अनित्य , अशरण , एकत्व और अन्यत्व इन चारों भावनाओ से भावित बनना । शील का कवच सदा पहने रखना । श्री नवकार मंत्र का गुंजन हमेशा दिल मे रखना । ‘
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