‘अच्छा ? मैं तो तैयार हूं ! पर कब और कहां ?’
‘दो चार दिन में ही और राजसभा में ।’
‘ठीक है, मैं आज पिताजी से मिलूंगी !’
‘आज तू उपाश्रय गई तब बाद में तेरे पिताजी ने धनावह श्रेष्ठि को यहां राजमहल में बुलवाया था ।’
‘क्यों ?’
यह तो मैं नहीं जानती …. पर उन्होंने कल सेठ से बात कि थी कि एक दिन मैं अमरकुमार और सुरसुन्दरी की परीक्षा राजसभा में लेना चाहता हूं। मुझे कल रात को बताया था तेरे पिताजी ने इस बारे में । शायद बात तय करने के लिये ही आज श्रेष्ठि को यहां बुलवाया होगा । श्रेष्ठि ने अमरकुमार से पूछ भी लिया होगा ।’
सुरसुन्दरी को अमरकुमार की बात सही लगी । वह खामोश रही। उसे एक बात समझ में नहीं आ रही थी ‘पिताजी क्यों हम दोनों की परीक्षा राजसभा में लेने का इरादा रखते है ? मेरी परीक्षा तो ठीक , पर अमरकुमार की परीक्षा लेने का क्या मतलब ? इसका क्या कारण ?’
भोजन करके वो अपने शयनखंड में पहुंच गयी ।
सुरसुन्दरी के दिल में अमरकुमार के प्रति प्रेम दिन व दिन बढ़ रहा था । गाढ़ा हुआ जा रहा था । हालांकि कभी भी दोनों में से किसी ने मर्यादा-रेखा का उल्लंधन नहीं किया था ।
अमरकुमार के दिल में भी सुरसुन्दरी बसी हुई थी । पर वह समझता था कि ‘सुरसुन्दरी तो राजकुमारी है और मैं रहा श्रेष्ठिपुत्र ! हम दोनों की शादी संभवित ही नहीं है । सुरसुन्दरी की शादी किसी राजकुमार से होगी ।’
सुरसुन्दरी के दिल में भी यही कल्पना थी मैं अमर को कितना भी चाहूँ … पर मेरी शादी तो आखिर किसी राजकुमार के साथ हो होगी । राजकुमारी भला एक श्रेष्ठिपुत्र से कैसे विवाह कर सकती है ? ओह, भगवान ! आज यदि मैं किसी श्रेष्ठि की कन्या होती तो मेरा सपना साकार बन पाता …. हाय ! पर आखिरी निर्णायक मेरे अपने पूर्वजन्म के उपार्जित अशुभ – शुभ कर्म ही होंगे न !’
विचारों में खोयी खोयी सुरसुन्दरी जाने कब नींद के पंख लगाकर सपनों की दुनिया में पहुँच गयी ।
आगे अगली पोस्ट में…