देवत्व आत्मा का ही एक पर्याय है । पशुत्व और नारकत्व भी आत्मा के पर्याय ही हैं ।
पर्याय को अवस्था भी कह सकते हैं।
बाल्यावस्था बीती और युवावस्था का जन्म हुआ । निरोगी अवस्था नष्ट हुई और रोगी अवस्था पैदा हुई । धनवान – अवस्था नष्ट हुई … गरीबी का जन्म हुआ । यों अवस्थाएं बदलती रहती हैं …. पर आत्मा तो स्थायी रहती है , यह है आत्मा की नित्यता ।
यानी , यों नहीं कहा जा सकता कि ‘आत्मा नित्य ही है ‘ … या ‘आत्मा अनित्य ही है।’ पर यों कहा जायेगा कि’आत्मा नित्य भी है … आत्मा अनित्य भी है।’ द्रव्य की अपेक्षया आत्मा नित्य है … पर्याय की अपेक्षया आत्मा अनित्य है । इसका नाम है अनेकान्तवाद । यही है सापेक्षवाद ।
इसलिये , जीवन में हमेशा कहनेवाले की अपेक्षा , उसके पहलू को समझने की कोशिश करनी चाहिए । ‘यह किस अपेक्षा से बात कर रहा है ।’ यह समझने वाला मनुष्य समाधान पा लेता है । अपेक्षा समझने वाला समता प्राप्त कर सकता है । अपेक्षा को समझने वाला मनुष्य ही सर्वज्ञ – शासन के तत्वों की यथार्थता को पहचान सकता है ।
आचार्यदेव ने सुरसुन्दरी के सामने देखकर पूछा : ‘क्यों अनेकान्तवाद की यह बुनियादी बात तेरी समझ में आ गयी न ?
‘जी हां , गुरुदेव! एकदम साफ साफ समझ में आ गयी सारी बातें । आपका कहना मैं भलीभांति समझ सकी हूँ !’इस अनेकान्तवाद को जीवन में स्थान देना चाहिये । जीवनव्यवहार को सरस एवं सरल बनाने के लिये, कषायों से बचने के लिये यह विचारधारा काफी हद तक उपयोगी बनती है । सेदान्तिक मतभेदों को भी इस विचाराधारा के माध्यम से दूर किया जा सकता है । विवाद हमेशा पैदा होते हैं एकांतवाद से । आग्रही बने रहने से !अनेकान्तवाद में कोई आग्रह नहीं होता ।
अब तो तुम्हारे दोनों का धार्मिक अध्ययन भी करीब करीब पूरा हुआ , वैसा कहा जा सकता है… हालांकि शास्त्रज्ञान तो अपार है … उसका कही अन्त नहीं है , फिर भी जीवन में अत्यन्त उपयोगी तत्वज्ञान तुमने प्राप्त कर लिया है । उस तत्वज्ञान का दिया बुझ न जाये … इसकी सावधानी रखना । संसार में विषय – कषाय को आंधियां चलती ही रहती है । यदि सावधान न रहें तो ज्ञान का दीया बुझ भी सकता है ।
तुम्हारे में सत्व है … समझ है … मानव जीवन को सफल बनाने के लिये जीवन में धर्मपुरुषार्थ को समुचित स्थान देना । अर्थपुरुषार्थ व कामपुरुषार्थ तो मात्र साधन के रूप में ही सिमित रहने चाहिये। साध्य बनाना धर्मपुरूषार्थ को ! धर्मपुरूषार्थ का लक्ष्य बनाना मोक्षदशा को । आत्मा के शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करने ध्येय चूकना मत ।
तुम में रूप, सम्पति और यौवन का सुभग मिलन हुआ है ….. इसलिये तो तुम्हे ज्यादा जगत रहना होगा । ये तीन तत्व अज्ञानी और प्रमादी आत्माओं को दुर्गति में खींच ले जाते है । ज्ञानी एवं जागत आत्माए इन तीन तत्वों का सहारा लेकर उन्नति भी कर लेते है । उनके लिये रूप , जवानी और दौलत आशीर्वाद रूप बन जाते है ।
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