‘गुण द्रव्य के सहभावी होते हैं, जबकि पर्याय क्रमभावी होते हैं । गुण द्रव्य में ही रहे हुए होते हैं, जबकि पर्याय में उतपति और विनाश का क्रम चलता ही रहता है । इस तरह हर एक द्रव्य अनन्त धममित्क होता है । परस्पर विरोधी दिखने वाले पर्याय – गुण भी एक द्रव्य में होते हैं… हालांकि , उनकी अपनी अपनी अपेक्षाएं-विभावनाएं समझ ली जाय तो फिर विरोध नहीं रहता है ! देखो … एक उदाहरण देकर मैं यह बात और स्पष्ट करता हूं :
एक पुरुष है । एक युवान आकर उसे ‘पिता’ कहकर बुलाता है । दूसरा लड़का आकार उसे ‘चाचा’ कहकर पुकारता है । तीसरा युवान उसे ‘मामा’ कहकर पुकारता है । एक स्त्री आकर उसे ‘स्वामी’ के रूप में संबोधित करती है और एक वुर्द्ध आकर उसे ‘बेटा’ कहकर बुलाती है ।
पुरूष तो एक ही है …. उसमें पितुर्त्व जैसे है …. वैसे पुत्रत्व भी है … उसमें चाचापन भी है … मामापन भी है … और पतित्व भी है ! संसार के व्यवहार ने इस वास्तविकता का स्वीकार किया है , यानी कोई एतराज नही उठाता कि ‘नहीं, यह तो पिता ही है … पुत्र नहीं है …!’ पुत्र समझता है कि मेरी अपेक्षया यह मेरे पिता है परंतु उनके पिता की अपेक्षा से वे पुत्र है । पत्नी समझती है ‘मेरी अपेक्षया यह मेरे पति है … पर बेटे की अपेक्षया वे पिता है । बहन की नजर में वे भाई हैं। यानी की एक ही व्यक्ति को लेकर पत्नी और पुत्र झगड़ा नहीं करते । एक दूसरे का दष्टिकोण समझते हैं और मानकर चलते हैं। ….
अपेक्षाएं अल्वता , सही होनी चाहिए । पत्नी यदि अपने पति को पिता कहे तो वह गलत होगा ! पुत्री भी अपने पिता को पति कहे तो वह झूठ है !
इसलिये , यों नहीं कहा जा सकता कि यह पुरुष एकांतिक रूप से पिता ही है …. या फिर यह पुरुष तो केवल पुत्र ही है ! हां, यों जरूर कहा जा सकता है कि यह पुरुष पिता भी है । पुत्र भी है ! पति भी है ! इसका नाम है अनेकान्त हष्टि ! इसका नाम है स्यादवाद! एक वस्तु या व्यक्ति को उसके अनेक पहलुओं के साथ स्वीकार करना … किसी भी पहलू को नकारना नहीं , यही तो है स्यादवाद । ‘ही’ की भाषा में एकांत है … ‘भी’ की भाषा में अनेकान्त है ।
यह तो मैंने दुन्यवि रिश्ते का उदाहरण देकर समझाया । अब आत्मा को लक्ष्य करके समझाता हूं।
आत्मा नित्य भी है और अनित्य भी है !
हाँ, परस्पर विरोधी लगने वाले धर्म भी – नित्यत्व और अनित्यत्व एक ही आत्मा में रहते है !
द्रव्यद्रष्टि से आत्मा नित्य है । पर्यायहष्टि से आत्मा अनित्य है । आत्मद्रव्य का कभी नाश नहीं होता । आत्मद्रव्य कभी उत्पन्न नहीं होता है ।
‘तो फिर जो जन्म और मुत्यु दिखायी देते हैं वे किस के ?’ सुरसुन्दरी ने पूछा ।
‘आत्मा की पर्याय के ! एक आत्मा यदि मनुष्य है, तो मनुष्यत्व उस आत्मा का एक पर्याय है । आदमी मरा… इसका मतलब , आत्मा का मनुष्यरूप जो पर्याय था , वह नष्ट हुआ । वही होता है। वह मरकर देवगति में पैदा हुआ – इसका अर्थ देवत्व-पर्याय की उतपत्ति हुई , यों हो सकता है ।
आगे का अगली पोस्ट में…