सुरसुन्दरी तो आश्चर्य के सागर में मानों डूब गयी….’ओह, गुरुमाता। आपको मेरे मन की इच्छा का कैसे पता लग गया। मैं खुद आपको यही प्रार्थना करनेवाली थी कि ‘आप मुझे सबसे पहले श्री नवकार महामंत्र का स्वरूप समझाने की कुपा करें।’ और आपने खुद यही बात कही।’
‘कितना अच्छा इत्तफाक मिल गया। तेरी जिज्ञासा के अनुरूप प्रस्ताव हो गया। तू भलीभांति महामंत्र के स्वरूप को, उसकी आराधना विधि को ग्रहण कर सकेगी।’
‘आप महान हैं, गुरुमाता।’
साध्वीजी ने आंखे मुंदी। पंचपरमेष्टि भगवंतों का स्मरण किया और अपना कथनीय प्रारम्भ किया:
‘हे सुशीले, इस विश्व में पांच परम आराध्य तत्व है: अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु। परम इष्ट मोक्षपद की प्राप्ति करवाने वाले ये पांच परमेष्टि है। इन पांच परमेष्टि को किया हुआ नमस्कार सभी पापों का नाश करता है। यह नमस्कार महामंत्र सभी मंगलों में श्रेष्ठ मंगल है। कोई भी जीवात्मा यदि पांच समिति के पालन में अनुरत बनकर , तीन गुप्ति से पवित्र होकर इस महामंत्र का त्रिकाल स्मरण करता है उसके शत्रु भी मित्र बन जाते हैं, जहर भी अमृत में तबदील हो जाता है। दुष्ट ग्रह अनुकूल हो जाते है। उसका यश फैलने लगता है। खराब निमित्त और अपशुकन भी शुभ फल देने वाले बनते है। दूसरे मंत्र तंत्र इस महामंत्र का पराभव नहीं कर सकते । डायन परेशान नहीं करती, सर्प कमलदण्ड हो जाता है। अग्नि चिर्मियों का ढ़ेर बन जाती है। सिंह-बाघ शांत हो जाते है। हाथी हिरन से मासूम हो जाते है। राक्षस भी रक्षा करने लगते है। भूत विभूति देने वाले बन जाते है। व्यन्तर नोकर बन जाते है। युद्ध धन लाने वाला होता है। रोग भोग में बदल जाते है। विपतियों में संपति आ मिलती है। दुःख सुख में बदलने लगते है।
आगे अगली पोस्ट मे…