‘हां, मां। अमर उसकी मां की बात कभी नहीं टालता । पिता की आज्ञा का भी पालन करता है।’
लड़का प्रज्ञावान है….कलापूर्ण है….साथ ही गुणी भी है…वह यदि धर्मबोध प्राप्त कर लेगा तो उसके गुण चन्द्र – सूर्य की भांति दमक उठेंगे।’
अमरकुमार की प्रशंसा करते हुए और सुनते हुए सुरसुन्दरी पुलकित हो उठी । रतिसुन्दरी जानती थी अमरकुमार और सुरसुन्दरी के मेत्री-संबंध को। उसे तनिक भी आश्चर्य नहीं मुस्करा दी।
‘बेटी, जब तेरे पिताजी यह जानेंगे कि उनकी लाड़ली ने साध्वीजी के पास जाना तय कर लिया है, तब उन्हें कितनी ख़ुशी होगी?’
‘मां, मैं साध्वीजी से सबसे पहले तो श्री नमस्कार महामंत्र का अर्थ भावार्थ और रहस्य समझूंगी। अपना तो यह महामंत्र है ना ?’
हां बेटी….नमस्कार महामन्त्र को समझना । पर साध्वीजी से प्रार्थना करना । आग्रह मत करना । वे जो धर्मबोध दें उसे ग्रहण करना विनयपूर्वक ।’
‘अच्छा मां ।’
इधर उधर की बातों में मां-बेटी खो गयी ।
दूसरे दिन नियत समय पर सुरसुन्दरी श्वेत वस्रों में सज्ज होकर उपाश्रय में जा पहुँची। विधिवत वंदना करके विनयपूर्वक वह साध्वीजी के समक्ष बैठ गई।
‘साध्वीजी सुव्रता ने श्री नमस्कार महामंत्र का शुद्ध उच्चार करते हुए मंगल प्रारंभ किया।
पुन्यशीले, आज पहले दिन मैं तुझे श्री नवकार महामंत्र की महिमा बताना चाहती हूँ। तुझे अच्छा लगेगा न ?’
सुरसुन्दरी तो आश्चर्य के सागर में मानों डूब गयी….’
आगे अगली पोस्ट मे..