शिबिका आगे बढ़ने लगी ! यशोदा को लगा कि यह स्वामी नहीं जा रहे, परंतु यमराज यशोदा के प्राण को खिंचकर ले जा रहे है। जब तक शिबिक दिखाई दी तब तक यशोदा देखती ही रही। और जैसे ही शिबिका अदृश्य बनी कि यशोदा कि हिम्मत तूटी और वह गिर पड़ी। बेहोश होकर धरती पर ढल पड़ी।
प्रियदर्शना तत्काल बाहर दौड़कर आयी। जोर – शोर से चिल्लाकर दासदासियों को बुला के लायी। ठन्डे जल के छिंटे देकर यशोदा को होश में लाने की कोशिश होने लगी। धीरे-धीरे यशोदा होश में आई।यशोदा को दीक्षा कार्यक्रम – महोत्सव दिखाने के लिए एक रथ आकार खड़ा हो गया। यशोदा शक्त्ति हीन हो गई, बडी मुश्किल से यशोदा प्रियदर्शना के साथ रथ में बैठी । तीव्रगति से रथ राजमार्ग पर दीक्षा स्थल की तरफ बढ़ने लगा। नगर के बाहर पहुँचते ही देखा कि हजारों लोगों की भीड़ खड़ी थी। वर्धमान के केशलुंचन करने का समय शेष था । यशोदा को लगा कि भीड़ को चीरती हुई आगे बढ़कर पतिदेव के अंतिम बार चरण स्पर्श कर लूं।यह आखिरी मौका था। वर्धमान अणगार मुनि बनने के बाद फिर अनंतकाल के लिए हमेशा के लिए चरणस्पर्श का अवसर वापस मिलनेवाला नहीं है। यह बात यशोदा अच्छी तरह से जानती थी। परंतु हजारों की जनमेदनी के बीच में से निकल कर वर्धमान तक पहुँचने की चेष्टा वह न कर सकी।
बाजु में ही थोड़े ऊँचे पर्वत जैसे भाग पर यशोदा चढ़ गई। प्रियदर्शना साथ में ही थी। वहाँ से वर्धमान का सूर्य के जैसा चमकता अतिप्रसन्न मुखारबिन्द स्पष्ट दिख रहा था। यशोदा हर्ष से पागला-सी गई। अंत-अंत में स्पर्श नहीं, तो भी स्पष्ट दर्शन तो मिले। “माँ! मुझे भी बापुजी को देखना है।” राजबाला बोल उठी। यशोदा ने उसे उठा लिया। हाथ को लम्बा करकर अंगुली चिंधते हुए बोली, “प्रिया ! देख, वहां रहे तेरे पिताजी। नहीं मात्र तेरे ही पिता नही, अभी तो वे विश्वपिता है।’ प्रियादर्शना छोटी -सी आँखों को लम्बाकर वर्धमान को देखती रही।
वर्धमान ने दो-चार पल में ही पंचमुष्टि से मस्तक के बालों को खिंच लिया। यशोदा से यह सहन नहीं हुआ। वह जोर से चिख उठी।
आगे कल की पोस्ट मे…