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भगवंत की दयामृत दृष्टि से सिंचित -चंडकौशिक सर्प-

साधू था बड़ा तपस्वी, धरता था मन में वैराग्य।
शिष्यों पर क्रोध किया, बना चंडकौशिक नाग।।

पाठकों को प्रश्न होगा कि महानुभाव की कथा में सर्प की कथा आई कैसे?
मूल कथा हैं एक वृद्ध साधू की, लेकिन इसका नाम साधू के तीसरे भव का याने मर कर सर्प होता हैं तब के नाम से कथा का नाम ‘चंडकौशिक सर्प’ दिया हैं।

एक वृद्ध तपस्वी धर्मघोष मुनि…उनके एक बाल शिष्य दमदंत मुनि। उपवास पश्चात पारणा हेतु शिष्य के साथ गोचरी के लिए निकले। उनके पाँव के निचे एक मेंढकी कुचलाकर मर गई। इस की आलोचना करने के लिए बाल मुनि ने वृद्ध साधू को टोका। साधू ने बाल मुनि को कहा, ‘यहाँ अनेक मेंढकीया मरी पढ़ी हैं, क्या वे सब मैंने मारी हैं?’ लेकिन संध्या के प्रतिक्रमण के बाद बालमुनि ने याद दिलाया, ‘मेंढकी की आलोचना की?’ बार बार याद दिलाते बालमुनि पर वृद्ध मुनि क्रोधित हुए और ठहर जा, कहकर मारने  दौड़े। अंधेरा था और मुनि क्रोधित होकर दौड़ पड़े थे। बिच में एक खम्बा आया, वृद्ध साधू का सिर टकराया, खूब चोट आई और उनकी मृत्तु हो गई।

दुसरे भव में वह तपस्वीयों और वनखण्ड का स्वामी बना। अन्य तापसों को वनखण्ड में से वह फूल या फल तोड़ने न देता था। कोई फल-फूल लेता तो उसे मारने दौड़ता था। एक दिन वह फल तोड़कर ले जाते राजपुत्र के पीछे कुल्हाड़ी लेकर दौड़ा। कर्मवश वह खड्डे में गिर पड़ा और हाथ की कुल्हाड़ी सिर पर जोर से लगने के कारण तुरंत मर गया।

मरने बाद वह चंडकौशिक दृष्टिविश सर्प बना।
एक बार विहार करते हुए प्रभु महावीर श्वेतांबी नगरी की ओर जा रहे थे। मार्ग में यह सर्प रहता था। उसकी फूफकार मात्र से प्राणी वगैरह मर जाते थे। इस कारण से लोग उस मार्ग का उपयोग आनेजाने के लिए नहीं करते थे। वहाँ रहते गोपालों ने प्रभु को समझाया कि इस राह पर से मनुष्य ही नहीं, पक्षी भी नहीं फडकते। आप अन्य लम्बे मार्ग से श्वेतांबी नगरी पधारे। अनंत करुणासागर प्रभु ज्ञान से चंडकौशिक के भवों को जानकार प्रतिबोधना के लिए उस भयंकर मार्ग पर विचरे और अरण्य में नासिका पर नेत्र स्थिर करके कायोत्सर्ग ध्यान लगाया। कुछ ही समय में सर्प ने प्रभु को यूं खड़े देखा। मेरी अवज्ञा करके कौन घुस आया? भयंकर रूप से फूफकारा, लेकिन प्रभु पर उसका कोई असर न पड़ा। क्रोधित होकर प्रभि के चरणकमल पर डंस लिया। डंस पर रोधिर के बजाय दूध की धारा निकलती देखकर विस्मित हुआ और प्रभु के अतुलनीय रूप को निहारते हुए नेत्र स्तब्ध हो गए और थोडा शांत बन गया वह!

तब प्रभु ने कहा
‘अरे चंडकौशिक बूज! बूज! मोहित न हो।’ भगवान के वचन से सर्प को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ, प्रभु की तिन परिक्रमाएँ करके मनसे अनशन करना निश्चित किया। सर्प के भाव को समझकर अपनी करुणा दृष्टी से प्रभु ने उसे सिंचित किया।

अधिक पाप से बचने के लिए अब किसी पर भी दृष्टी न गिरे इसलिए वह बिलमें मुँह डालकर
हिले-डुले बिना अनशन व्रत धरकर पड़ा रहा। उसके उपसर्ग बंद होते ही लोग वहाँ से आने-जाने लगे। सर्प देवता शांत हो गए हैं, समझकर वहाँ से गुजरती ग्वालिने पूजा के रूप में उस पर घी छिडकने लगी।घी की सुगंध से असंख्य चींटिया उसके शारीर पर आकर घी खाती और उसके शारीर को काटने लगी। धीरे धीरे सर्प का शरीर छलनी बन गया। यह सर्पराज दसह्य वेदना सहते रहे और बेचारी अल्प बलवाली चींटिया शारीर के वजन से कुंचली न जाये ऐसा समझकर उसने शरीर को थोडा सा भी हिलाया नहीं। इस प्रकार करुणा के परिणाम एवं भगवंत की दयामृत दृष्टी से सिंचित सर्प एक पखवाड़े के बाद मृत्तु पाकर सहस्त्रार देवलोक में देवता बने।

निंदा करते झूठे जन, उससे कभी डरो मत,
पक्के सत्य विचार से, पीछे कभी हटो मत।

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