धर्म चार प्रकार का है- मै यहाँ पर हिन्दू धर्म, मुस्लिम धर्म, ख्रिस्ती धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म या अन्य कोई धर्म की बात नही कर रहा हूँ। सारे धर्मो ने अपनी परम्परा और जीवन जीने पदृति की उद्यघोषणा की है। परन्तु में मूल भुत रूप से धर्म के चार पार्ट है। मै उन्ही 4 पार्ट की बात कर रहा हूँ। इस धर्म के 4 प्रकार है।
1-काल धर्म
2-देश धर्म
3-गुण धर्म
4-स्वभाव धर्म
1) प्रत्येक काल का स्वयं का धर्म होता है। प्रत्येक युग की विशिष्ट प्रथा होती है। कितनी ही घटना वह समय के अधीन होती है।
पहले, दुसरे और तीसरे आरे में युगलिक व्यवस्था थी। कल्पवृक्ष थे।
चोथे आरे में प्रभु विराजमान थे।
यह सारी व्यवस्था काल के अनुरूप थी। काल को कोई भी बदल नही सकता है।
2)देश धर्म : हर देश का, हर एक स्थान का खुद का धर्म होता है। हर स्थान पर उनकी खुद की एक सभ्यता होती हैं। गुजरात राज्य की खुद के राज्य के हिसाब से अपना पहनाव है, भाषा है, व्यवहार है। यह सब देश धर्म के अंदर आता है। हम जिस जगह रहते है वहाँ के धर्म को निभाना हमारा फर्ज़ है। हमारी वफ़ादारी है।
3) गुण धर्म: ये तीसरे क्रम का धर्म है। अग्नि का गुण धर्म उष्णता देने का, उसे स्पर्श भी करोगे तो जलना ही है। पानी का धर्म है- शीतलता देने का, तो उससे आपको शीतलता ही प्रदान होगी। हर मानव में खुद का गुण धर्म होता है। जब मानव जिस लेश्या में होता है उस समय उनका स्वभाव भी उस लेश्या के धर्म का हो जाता है।
4) स्वभाव धर्म -स्वभाव धर्म की खूब ऊँचाई है। जब हम जीवन इसमें यापन करने लगते है तो संसार से ऊपर उठ जाते है। फिर हमे कुछ भी सोचने की आवश्यकता नही होती है। वह तो मात्र आत्म भाव में रमण हो जाता है। पुद्गल के भावो को वह देखता भी नही है। स्वभाव यानि चित्त के आनंद में मग्न हो जाता है। हमे पूर्व के तीनो धर्म में से चौथे धर्म का प्रयाण करना है तभी कल्याण स्वभाव है।।
“धर्म वह चमड़ी है, कपडे बदलते है चमड़ी नही”