प्राय: पाप-पुण्य के सबंध में प्रश्न उठा करते हैं। विद्धानों का मानना है कि
इनकी कोई निश्चित सर्वमान्य परिभाषा नहीं है।
लोगों का विश्वास है कि परिस्थितियां पाप को पुण्य में और
पुण्य को पाप में बदल दिया करती हैं।
जिस प्रकार सुबह के प्रकाश के लिए सूर्य को अंतरिक्ष का वक्ष चीरना होता है,
इसी प्रकार पुण्य की महिमा से दीक्षित होने के निमित्त, संभवत:
हर क्षण पाप की ज्वाला से पिघलने की जरूरत होती है।
जीवन पुण्य के बिना संभव है, किंतु पाप की परछाई भी जीवन का स्पर्श करती है।
समाज में रहकर हम परिवार को चलाने के लिए अनेक उद्यम करते हैं,
किंतु कहां कितना पाप हो रहा है और कितना पुण्य, हम इसका लेखा-जोखा नहीं रखते।
हमारा एकमात्र लक्ष्य धनार्जन होता है। यदि धन, झूठ और पाप से अर्जित है तो वह पेट में खप जाता है, किंतु पाप तो आपके पास संचित है। याद रहे पाप से अर्जित धन तो व्यय हो जाता है, लेकिन पाप व्यय नहीं होता। यही बात पुण्य के संबंध में भी है।
शास्त्र कहते हैं जीव मात्र ही भूल करता है। ऐसा कौन है जो इससे बचा हो?
जो इससे पृथक है वह मनुष्य नहीं देवता है, किंतु जो पाप करके
प्रायश्चित नहीं करता, वह दानव है।
जब तक मनुष्य अज्ञानी है, तब तक पाप, वासना व असत्य आदि उसके हृदय में उपस्थित रहते हैं। इसलिए तत्व ज्ञान की प्राप्ति आवश्यक है। इसके अभाव में पाप वासना नहीं मिटती।
ज्ञान प्राप्ति से सभी भेद मिट जाते हैं और व्यक्ति जन-कल्याणकारी कार्य में लग जाता है।
इस अनुशासित जीवन से पाप-वासना से वह मुक्त होकर, तपस्या, ब्रह्मचर्य, इंद्रियों को वशीभूत करने, स्थिर मति, दान, सत्य और अंतर्मन की पवित्रता आदि से अतीत के पापों से मुक्त हो जाता है, लेकिन इसके लिए प्रभु में निष्कपट विश्वास रखना जरूरी है।
पुण्य प्राप्ति की अगली कड़ी है- आंतरिक शत्रुओं को पराजित करने के लिए आत्मज्ञान की उपलब्धि। इससे ही तत्वज्ञान प्राप्त होते हैं।
काम, क्रोध, मोह, लोभ, मद, ईष्र्या- ये छह शत्रु मन को उद्वेलित करते रहते हैं,
इनका दमन करने पर मनुष्य दुख और पाप से मुक्त हो जाता है, मन के भीतर झांकते ही प्रभु कृपा से इन शत्रु का नाश आरंभ हो जाता है।
हमें पुण्य प्राप्ति के लिए बस इतना करना है कि हम शास्त्र सम्मत ढंग से जीवनयापन और धनार्जन करते हुए, लोक कल्याणकारी कार्यों में लगे रहें और अपने सभी कर्मों को प्रभु आश्रित कर दें। यही पाप मुक्त होने का तरीका है।