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चिंतन के कण

हिंसा, जूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह ये पांच बड़े पाप है।

1. मोह नामक पारधी शिकारी मन रूपी जाल द्वारा आत्मा रूपी हिरण को पकडता हैं जो मुनि यह मोह की चुंगाल मे फंसता नही, उसे कोई तकलीफ नहीँ होती

2. जब भी हमारा मन दूसरे जीवों के दोष या गुण मे ओतप्रोत बनने लगे, तब ज्ञान और ध्यान के रस के गहरे प्रवाहों मे डुबकियां लगानी चाहिये

3. जीव को जब परभाव मे शरीर, धन आदि मे अहमपना की बुद्धि हो तो उसे अपने गुणों की हल्की सी भी सुगंध भी मिलती नही पर हां, यदि अपने गुणों की स्रुष्टी की तरफ़ जांकने का प्रयत्न हो तो जीवन सम्रुद्ध बने स्व के साथ का सम्बंध द्रढ बने पर का नाता टूटे

4. शिष्य की भूमिका तीन तरह की होती हैं। पहली भूमिका व्यव हारू शिष्यत्व की,
गुरु के जल रुपि पात्र मे वह पथ्थर का टुक्कडा कैसे मिल सके?
दुसरी भूमिका बर्फ के घन समान शिष्यत्व की उसे तोड़ना पडे तभी वह प्रवाही बन कर गुरु के जल पात्र मे ढल सके।
तीसरी भूमिका का शिष्य पानी जैसा होता हैं उसकी कोइ इच्छा रुप आकार नहीँ होता।

श्री योगीराज फरमाते हैं
March 29, 2016
यमराज से बात
March 30, 2016

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