स्कंदक नामक सन्यासी जब समवसरण की सीडिया चढ़ने लगा ।तब श्री महावीर प्रभुने श्री गोतमस्वामी को फ़रमाया की गौतम ।तुम्हारा मित्र समवसरण में आ रहा हे ।चारो और आष्चर्य की सिमा नही रही क्योकि इस स्कंदक सन्यासी को वे किसी तरह से भी नही पहचानते थे।आज पहली बार देखा हे तो भी प्रभु कह रहे हे की वे तुम्हारे मित्र हे।प्रभु वचन के गर्भ में कोई अदृश्य दुनिया छिपी हुई थी।उसे जानने के लिये सभी उत्सुक बन गये थे।भगवंत।ये सन्यासी मेरे मित्र किस तरह होते हे?
गोतमस्वामी ने पूछा
पूर्व के पाच पाच जन्मों से तेरा संबंध इस सन्यासी के साथ जुड़ा हुआ हे।तुम दोनों आपस में साधर्मिक भी बने हो और पति पत्नी भी बने हो।आज तू गणधर बना हे तथा वह सन्यासी ।कर्मो की यह कल्पनातित शक्ति हे।प्रभुजी ने बताया।
पहलाभव: मंगल सेठ।
में जब अठारहवे भव त्रिपृष्ठ नमक वासुदेव था ।तब तू मेरा सारथि बना। इसके बाद तेरा और मेरा मिलन इस स्ताईसवे भव में हुआ हे।बिच के समय में मेरे जेसे तूने भी संसार का बहुत भ्रमण किया।उसमे तेरे जो अंतिम पांच भाव हुए उसकी यह कथा हे।पूर्व के छठे भव में तू मंगल श्रेष्ठि के रूप में उत्पन्न हुआ था।वहाँ तूने सम्यगदर्शन की प्राप्ति की मानो की मोक्ष तरफ प्रस्थान दे दिया।सम्यक्त्व न मिले तब तक के भवो की गिनती कहा होती हे?
महाविदेह क्षेत्र की पुष्पकलावति विजय में बहावर्त नामक देश है।सच में वह ब्रह्मड़ जैसा विशाल हे।इस देश में बह्य पुत्र नामक महानगर था।उसके राजा का नाम बह्यचंद्र।राजा की ब्राह्यही नाम पटरानी ने बत्तीस लक्षणवाले पुत्र को जन्म दिया।उसका ब्रहादत ऐसा नाम रखा। कालक्रमानुसार वह युवराज हुआ।इसी महानगर में तू मंगल नामक श्रेष्ठि बना।नगर सेठ जेसी तेरी शान थी ।पूर्व कृत पुण्योदय से सम्पति तो इतनी मिली कल्पना भी नही की जा सकती।इस तरह निन्यानवे करोड़ सोना मुहरों का तू स्वामी बना पशु खेत महल दागिने संपति निन्यानवे करोड़ से भी ज्यादा थी ।इतनी प्रचंड सम्पति का तू मालिक बना तो भी विषय का प्रचंड मोह तुझमे पैदा नही हुआ।तेरा आत्मिक उपादान अब कर्मो के वजह से बहुत हल्का बन गया था।ये क्षेत्र ही ऐसा ही जहा पर केवल ज्ञानी तथा तीर्थकरों का विरह कदापि नही होता।किसी अवसर पर तूने किसी ज्ञानी भगवंत की देशना सुनी हर्दय से गदगद होकर तूने तभी संयकवृत को स्वीकार किया ।इसी नगरी में एक सुधर्मा नामक गृहस्थ रहता था।धर्म तथा बुद्धि से तुम दोनों समान कक्षा के थे परंतु कमान के दोनों छोडो के बिच जितना अंतर होता उतना अंतर तुम दोनों की संपति के बिच में था।आपस के स्नहे से भी जुड़ गये।तूने तेरे इस गरीब साधर्मिक की पूरी तरह से सहायता की ।समय के मुताबित तू जीवन की उत्तरावस्था में पंहुचा।पहले के किसी तीव्र अशुभ कर्म के उदय से किसी असाध्य बीमारी के शिकंजे में तू फस गया ।परंतु जेसे जेसे दवाईया लेते गया वेसे वेसे उसने आक्रामण रूप लेता शुरू किया अंत में तूने दवाईया बंद कर दी ।द्रव्य उपचार से वैराग्य ले लिया।तूने भावोपचार करने का निशचय किया।स्वजनों को इकठ्ठा करके सम्पुर्ण कुटुंब की जिमेदारी तूने तेरे बड़े पुत्र के कंधे पर डाल दी एवं अनशन करने की इच्छा प्रकट की। सिंह जेसे सत्वपूर्वक गुरु को तूने आमंत्रण देकर बुलवाया।शहर के कितने ही श्रावको ने तेरे अनशन से प्रतिबोध पाया वे भी यथाशक्ति व्रत नियम स्वीकार करने लगे।गर्मी तब जमीन को जला रही थी।जेठ महीना आया।एक तरफ पारे की बोतल में गर्मी का अंक ऊपर तरफ जा रहा था दूसरी और तेरे मन की पारे की बोतल में शुभध्यान का अंक ऊपर से ऊपर चढ़ता जा रहा था।इसी तरह अचानक तेरे मन में आंधिया उड़ने लगी ।तुझे इतनी ज्यादा प्यास लगी की जितनी वेदना को तू सहन नही कर पाया ।तुझे ऐसे ऐसे विचार आने लगे की वे जिव धन्य हे पुण्यशाली हे जो पानी में जन्म लेते हे पानी मेही जीते हे इच्छा होती हे तब पानी प्राप्त कर सकते हे ।शुभध्यान से भ्रष्ट हुई तेरी मनोधरा अविरित तथा अविरतिधारि की अनुमोदन में लग गयी।इसी समय तूने आयुष्य का बंद।किया ।तिर्यनचगति तथा उसमे भी मछली की योनि का आयुष्य बाँधा ।धर्म के प्रथम फलस्वरूप सदगति को तू हार गया।सदगति को हरनेवाला समाधी को अवश्य हार जाता हे।किसी बड़ी नदी में तू विशाल शरीवाला मछली के रूप में पैदा हुआ।