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श्री गोतमस्वामी के पूर्वजन्म 2

दूसरा भव : विशाल नदी में मछली के रूप में उत्पति

कर्म की गति सच में विचित्र होती हे।थोडासा उत्कर्ष हुआ न हुआ वही पतन करा देती हे।हा एकाद छोटा सा निमित उसे मिलना चाहिये ।पाप भीरु बनकर तूने अनशन किया परंतु यह अनशन के दोरान तू दू:खभीरु बन गया।उसके सिवाय ऐसा क्यों बने? कहा मंगलसेठ का जन्म तथा कहा जल में थिरकती मछली की जिंदगी? कहा पहले की सम्यग् दर्शन से उज्जवल बानी हुई आत्मिक अवस्था तथा कहा अब संयक्रवत का पतन होने से फिर से धुँधली बानी हुई आत्मदशा ।वेदना सहन नहीं हुई क्योकि दू:भीरुता ने तुझे तेरे सयक्रवत धर्म से भ्रष्ट किया ।अबतो समीकृतव् भी न रहा तो विवेक केसा? हष्ट पुष्ट मछली का शरीर तुझे मिला तू प्रचंड जलराशि में यहाँ से वहाँ टकारता समय व्यतीत करने लगा भूख हो या न हो परंतु जलाचरो का शिकार करनेबक व्यसन तुझे लग गया।समय बीतता गया ।एक बार तुझे नदी में जिनमूर्ति के आकार की मछली देखि।तेरे शिकार करने की आदत शांत हो गई।इस आकार तो मेने कहि देखा हे ।इस आकर को देखकर ही मेरे मन में कोई गहरी संवेदना का अनुभव होता हे ।किसका होगा यह आकार? इसके दुवारा प्रथम संयक्रवत प्रकटि करण उसके बाद जिनधर्म की की हुई अदभुत आराधना।जीवन के उत्तरकाल में अनुभव की हुई असाध्य बीमारी स्वीकार अनशन सब तेरी बुध्दि की आखो के सामने प्रत्यक्ष हो गया ।ऐसा होने के बाद तू मूर्छा छोड़कर जाग्रत हो गया।आखो में आसु तथा हर्दय में आक्रंद जोर मारने लगा ।केसी मेने अति भयानक कक्षा की भूल की।जो आकर देख रहा हु वो आकार जीन प्रतिमा का हे जिन प्रतिमा की तो मेने हजारो बार पूजा किहे।मन की कायरता के कारण सभी में हार गया ।धर्म भी गुमा बेठा इसके बाद तूने निष्चय किया की जो होना था सो हो गया।इस तिर्यंच के भव को मुझे साधना पवित्र कर देना हे और जो खोया हे उसे फिरसे हासिल करना हे।मेरा सोभाग्य हे की आज यह जिनमूर्ति के आकरवाली मछली देखने को मिली हे।जिसके दर्शन से सच्चा आत्मज्ञान जाग रहा हे।यहाँ कितना धर्म हो सकता हे?मोक्ष की शुद्ध इच्छा तेरे मन में जग उठी ।तूने मास भक्षण का त्याग किया मांस भक्षण का त्याग किया धीरे धीरे पानी पीना भी बंद क्र दिया।नवकार के स्मरण में मन डुबा दिया।जाने जलचर की दुनिया में जो सरल रीती से संभव था ऐसी उत्सुकता ही शांत हो गई।तुझे अनशन करने की इच्छा जागी इसीलिए ही तो तू यह सब पूर्व तैयारी कर रहा हे ।योगायोग उसी समय बहुत से जहाज नदी में से प्रस्थान करने लगे ।ये जहाज ब्रह्हापुत्र नगर से आ रहे थे।और उसमे तेरा पूर्व जन्म का मित्र सुधर्मा भी शामिल था।अचानक आंधी आ गई।हवा की त्रीव लहरो ने जहाज को घेर लिया सभी वाहन फस गये एक दूसरे पर गिरने लगे तूट के पानी में डूब गये।कोण किसे बचाये तथा कोण किसे सुने?जेसे सर्वनाश खड़ा हो गया।इस समय सुधर्मा भी रोने लगा।उचे स्वर में उसने नवकार बोलना शुरू किया।वह पानी में डूब रहा था ।सुधर्मा का स्वर तेरे कान में पहुँचा ।तुझे जाती स्मरण ज्ञान था ना? इससे तूने सुधर्मा को पहचान लिया।उसके ऊपर उपकार करने की भावना से तू दोडता हुआ उसके नजदीक आया तेरी पीठ पर सुधर्मा को बिठा लिया।नदी के किनारे उसको छोड़ दिया और तू फिर नदी की गहराई में चला गया ।नजर के सामने देखि हुई सुधर्मा की इस आपत्ति से तेरा मन वेराग्यवासित बन गया।तूने अनशन स्वीकारा।बजबूत निष्चय के साथ उसका पालन भी करने लगा।भूख प्यास तथा अन्य जलचरों के कष्ट की वेदनाओ से तू डरा नही।पंद्रह दिनों तक अतिचार रहित अनशन की आराधना की।अंत में वैमानिक देवलोक का आयुष्य बांधकर तेरी मृत्यु हुई।

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