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नौ पुण्य की उत्पत्ति-नवपद

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9 प्रकार के पुण्य से 9 प्रकार की वस्तुओं की प्राप्ति होती है। एक भी वस्तु ना मिले तो जीवन दुष्कर बन जाता है। उनमें वस्तुओं में अन्न, जल, वस्त्र आदि का समावेश होता है।

दिये बिना मिलता नहीं, बोए बिना उगता नहीं, ऐसा नियम है।

जो मिला है, उसका कोई मूल्य न गिनकर दुरुपयोग करना और जो नहीं मिला उसका व्यर्थ इंतजार करना भी अज्ञान है। परंतु विचार करे की मन और वचन यदि ना मिले होते तो कैसी दुर्दशा होती? अनमोल पदार्थों का यथास्थान इस्तेमाल नहीं करेंगे तो पुनः उनका अभाव ही प्राप्त होगा।

वस्तु के भोग में 9 पुण्य को भूल जाते हैं, तो फिर से विकास रुक जाता है। पुण्य की उत्पत्ति नवपद की आराधना बिना नहीं हो सकती है।

नवपद में प्रथम श्री अरिहंत परमात्मा है।
(1) श्री अरिहंत परमात्मा यानी विश्वोपकारी, विश्ववत्सल, परार्थ व्यसनी परमात्मा, पुण्योत्पादक, गुण के सागर, कृपासिंधु ऐसे असीम उपकारी श्री अरिहंत देव को भूल जाएंगे, भाव से भक्ति नहीं करेंगे तो भववन में भटकना पड़ेगा।
(2) दूसरे पद पर श्री सिद्ध परमात्मा संपूर्ण गुण और पूर्ण सुख के स्वामी है। अव्याबाध, शाश्वत सुख के मालिक हैं, उनके परम विशुद्ध आत्मा के एक-एक प्रदेश में अनंत सुख रहा है।
(3) नवपद में तीसरे पद पर रहे आचार्य ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चरित्राचार तपाचार तथा वीर्यचार के भंडार हैं। इन 5 आचारवाले आचार्य के भक्ति करने से केवलज्ञान, सम्यक्तव, चारित्र, वीर्य आदि प्राप्त होता है।
(4) चतुर्थ पर विराजमान उपाध्याय भगवंत, विनय गुण के भंडार हैं।
(5) पाँचवे पद पर रहे साधु भगवंत सहाय गुणों के भंडार है। जितने अंश में हम दूसरों को सहाय करते हैं’ उतने अंश में साधु बनते हैं।
(6) छटा दर्शन पद है। दर्शन यानी परजीव-प्रीति, जीवतत्त्व पर गहरी लगन, जीवंत सद्भाव। हमें सर्वाधिक रूचि स्व पर है। हमें जैसी रुचि अपने प्रति है वैसी अन्य के प्रति नहीं हो तो उतने अंश में मिथ्यात्व दर्शन का अंधापन है।
(7) सातवा पद सम्यग्ज्ञान है। सम्यग्ज्ञान यानी सद्विचार का भं

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