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श्री गोतमस्वामी के पूर्वजन्म पाचवा भव: आठवें देवलोक के इंद्र।

निरतीचार संयम के पालन का सामर्थ्य तेरे पास था।इसके द्वारा बांधी हुई शुभपुण्य की प्रकृति सामान्य कक्षा की नही थी।उस पूण्य के प्रभाव से तू पाचमें भाव में आठवे देवलोक के इंद्र के रूप में पैदा हुआ।अपार समृध्दि तथा वैभव तेरे चारो और फैले हुए थे।धिसरवा मंत्री की आत्मा भी तेरे साथ ही सहस्त्रार देवलोक मे तेरे समनिक देव के रूप में पैदा हुई।इस तरह तेरे संयम ग्रहण करने की चर्चा लोगो के मुख से सुनकर यह धनमाला भी पष्चाताप से भर गई।खुद के दुचरित्र के लीये दिन रात आंसु बहाने लगी।केसी हूँ पापिनी? मंदभागी  ।ससुरपक्ष तथा पितृपक्ष दोंनो कलंक लगाया।मेरा क्या होगा? उसे चेन नही पद रहा था।किसी भी तरह से खुद के जार पुरुष के शिकंजे में से छुटने के लिये उसने दिक्षा ली ।गुरुणि की वेयावच्च में तल्लीन बन गई।जितने तीव्र भावो से पाप किये थे उतने तीव्र भावो से आलोचना की।अंत में वह धनमाला भी मृत्यु को प्राप्त हुई तथा आठवे देवलोक में तेरे आज्ञाकारी देव रूप में पेदा हुई।यहाँ पर भी ऐसा ही हुआ।तुम्हारे तीनो के बिच स्नेह की जंजीर बांध गई।एक दूसरे को मिले बिना तुम्हे चेन नही पड़ता था।एक साथ ही तीर्थयात्रा करने तथा साथ ही कल्याणक महोत्सव की उजवणीं करते।इसके सिवाय बहुत सारा समय तुमने तीर्थंकर की देशना के श्रवण से व्यतीत किया।आठवे देवलोक के देवेंद्र का सागरोपम का आयुष हे।इतना लंबा समय खंड पण तूने प्रभातकाल की पूजा  जैसा व्यतीत किया।प्रचंड पूण्य का उदय था न?पुण्योदय का समय कहा व्यतीत हो जाता हे पता तक नही चलता और पाप के उदय बीमार व्यक्ति की रात की तरह जल्दी से व्यतीत नही होता।वह थोडा होने पर भी बहुत लंबा लगता हे ।आयुष्य पूर्ण होते ही तेरी मृत्यु होगई।

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