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आबरू तो बचानी ही है

बनारस यूनिवर्सिटी के निर्माण के लिए पंडित मदनमोहन को विपुल धनराशि की आवश्यकता थी। इसे प्राप्त करने के लिए वे स्वयं घुमते रहते थे। भीख मांगते थे, ऐसा करने में उन्हें किसी प्रकार की शर्म या संकोच नही था। वे कहते थे की *यह कोई मेरे अपने लिए है कि मुझे भीख मांगने में शर्म का अनुभव हो।*
एकबार वे अबजोपति निजाम के पास गए। निजाम ने उन्हें कुछ भी देने से इंकार कर दिया। मालवीयाजी ने कहा: *साहब! मै कुछ भी लिए बिना यहाँ से हटनेवाला नही हूँ।*
मालवीया को वहाँ घंटो बैठे देखकर निजाम को गुस्सा आया। गुस्से में आकर उन्होंने पैर की मोजड़ी फेकते हुए कहा कि *ले जाइए, मेरी तरफ से यह भेंट।*
आपका पुराना जूता भी हमारे भाग्य में कहाँ से! धन्य घड़ी, धन्य भाग्य! कहते हुए मालवियाजी ने अत्यन्त आदर के साथ वह जूता अपने शाल में लपेटा और बिदा हुए।
दूसरे दिन बिच बाजार खड़े होकर उस जूते की नीलामी शुरू की। निजाम के मुनीम ने यह दृश्य देखा। मुनिम ने मालवियाजी को स्पष्ट शब्दों में ऐसा कहते हुए सुना कि ” यह जूता निजाम की ओर से यूनिवर्सिटी के फण्ड में भेंट स्वरूप दिया गया है।
निजाम के अंधे भक्तो ने उसे पाने के लिए बोली लगाना शुरू कर दिया और पूरे ढाई लाख रुपये की बोली बोली गई। दूसरी ओर मुनिम ने जाकर निजाम को बताया कि “ऐसे तो आपकी इज्जत पर कीचड़ ऊछलेगा। आपकी बदनामी होगी। उस जूते को वापस लेना ही होगा।
निजाम घबरा गए। मुनिम को खुली छूट के साथ बाजार भेजा। ढाई करोड़ की बोली लगाकर मुनिम ने वह जूता वापस पा लिया।
मालवियाजी के मन में उस समय कौन से भाव उद्बेलित हुए होंगे, उसकी तो कल्पना ही क्या की जा सकती हैं।

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