एक चोर था। एक बार वह किसी सन्यासी की कुटिया में चोरी करने के लिए
गया। रात के बारह बज रहे थे। सन्यासी अभी जग रहे थे। प्रभु-नाम स्मरण कर रहे
थे। चोर ने यहाँ-वहाँ टटोला पर कुछ हाथ नही लगने पर बाहर निकलने लगा।
तब सन्यासी ने उसे रोककर कहा: भाई! फ़िक्र मत करो। कुछ तो तुम्हे
मिलेगा ही। चलो ,मै भी तुम्हारी मदद करता हु। सन्यासी को दस रुपये का नोट मिल
गया। उन्होंने उसे चोर को दे दिया।
उस वक्त कड़ाके की ठण्ड थी। सन्यासी ने अपने शरीर पर लपेटा हुआ कम्बल
उसके शरीर पर ओढ़ाया।
अपने चोरकर्म से शर्मिंदगी अनुभव कर रहे चोर ने वह कम्बल लेने से
बहुत इनकार किया लेकिन सन्यासी ने तो अपनी मनमानी ही की।
चोर वहाँ से बाहर निकला। अन्य आरोप के तहत उसे रात पुलिस ने उसे धर
लिया। उससे कम्बल आदि जब्त कर लिया। यह कम्बल सन्यासी का है- ऐसा चोर से जानकर
पुलिस कम्बल लिए उस सन्यासी के पास गई।
सन्यासी ने कहा:’ अरे! यह कम्बल उसने चोरी नही किया है। मैंने उसे
प्यार से उपहार के रूप में दिया है। पुलिस ने वह कम्बल चोर को वापस लौटा दिया।
एक साल की सजा से मुक्त होते ही वह चोर सीधा सन्यासी के पास गया। उनके
पैरों में पड़कर बहुत रोया। बाद में उसने सन्यास ग्रहण कर के अपना सारा जीवन
प्रभुभक्ति तथा पर पीड़ा हरण में व्यतीत किया।