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रुक्मिणी के एक लाख भव

क्षितिप्रतिष्ठित नगर के राजा की पुत्री रुक्मिणी ने यौवन वय में कदम रखा ही था कि राजा ने उसका विवाह योग्य राजकुमार के साथ कर दिया, परन्तु विवाह होते ही उसका पति यमशरण हो गया। बालविधवा हो जाने से वह भयभीत हो गई।निराधार होने का उसे जितना दुःख नहीं था, उससे भी अनेक गुना दुःख उसे आजीवन ब्रहमचर्य पालने की असमर्थता में लगा। वह अग्नि में कूदने की तैयारी करने लगी। तब उसके पिता ने उसे समझाया कि अग्नि में जल मरने से आत्महत्या का पाप लगता है। आत्महत्या से महान दुर्गति भी होती है।हत्या करने वाले जीवन में प्रायश्चित ले सकते हैं, लेकिन आत्महत्या करने से परलोक में न प्रायश्चित ले सकते, न पति का मिलन भी होता है। अतः जलकर मरने का विचार छोड़ दे और अपना जीवन धर्म अनुष्ठान में लगा दे। उसकी पूर्ण व्यवस्था राज्य की और से हो जायेगी। धर्म अनुष्ठान में व्यस्त रहने से तू सरलता से ब्रहमचर्य पाल सकेगी। तेरा चित धर्म अनुष्ठानों से ओत-प्रोत हो जायेगा।

रुक्मिणी ने पिताश्री के वचनों को मान्य कर अपने विचारों को बदल दिया। दिन प्रतिदिन वह अधिकाधिक धर्मसाधना करने लगी। उसमें ब्रहमचर्य के गुणों का भी विकास होने लगा। इस गुण के प्रताप से उसकी यशोगाथा गाँव-गाँव में पहुँच गई। इस बीच उसके पिता की मृत्यु हो गई। उस समय कुछ मंत्रियों ने विचार किया कि राजा निष्पुत्र है, इसलिए राज्याभिषेक किसका किया जाये? कुछ मंत्रियो की ओर से यह सूचना थी कि रुक्मिणी यद्यपि पुत्री है, तथापि पवित्र आत्मा है। अतः उसे ही राजगद्दी पर बिठाना उचित है। सभी ने स्वीकृति प्रदान की। राजगद्दी पर बैठने के बाद भी रुक्मिणी शुद्ध ब्रहमचर्य का पालन करती थी। इससे उसकी कीर्ति चारों दिशाओं में व्याप्त हो गई।
रुक्मिणी के ब्रह्मचर्य गुण की ख्याति से आकर्षित होकर एक ब्रहमचर्य प्रेमी बुद्धिमान युवक, जिसका नाम शीलसिन्नाह था, वह मंत्रिपद के लिए आया। उसका यह विचार था की भरण-पोषण भी होगा और एक गुणवान आत्मा की सेवा भी होगी। सदभाग्य से उसे मंत्रिपद भी मिल गया।
एक दिन राज्यसभा में शीलसिन्नाह मंत्री बैठा था। राज-सिंहासन पर बैठी हुई रुक्मिणी चारों ओर दृष्टि घूमा रही थी। इतने में यौवन और लावण्य जिसके अंग-अंग में विकसित हो गया था, उस शीलसिन्नाह मंत्री पर दृष्टि गिरी, गिरते ही दृष्टि वहीं स्थिर हो गई। “अहो! इस मानव का इतना रूप है? अरे! यौवन छलक रहा है।” ऐसे मन मे कुविचारों का चक्र प्रारंभ हो गया और दृष्टि में विकार आ गया।
शीलसिन्नाह को वस्तुस्थिति समझते देर न लगी। वह विचार करने लगा- अरे! में तो चारों दिशाओं में ख्यातनाम एक ब्रह्मचारिणी की सेवा करने आया था। ओह! पानी में से आग उठी है। कहाँ जाऊँ? धिक्कार हो इस कामवासना को ! क्या इस कामाग्नि में मैं भी भस्मीभूत हो जाऊँगा? नहीं, नहीं……. मुझे कहीं पर चले जाना चाहिए। यहाँ रहना उचित नहीं है। क्या पता कब उसकी कामाग्नि मेरे आत्मदेह को जला कर भस्म कर देगी ? मेरी आत्मा को अपने पंजे में ले, इससे पहले ही मैं किसी दूसरे राज्य में चला जाऊँ !
इस प्रकार विचार कर वह राज्य छोड़ कर चला गया।
वह शीलसिन्नाह मंत्री विचारसार नामक दूसरे राजा के पास गया और वहाँ उसने मंत्रिपद की याचना की। अनेक परीक्षा करने के बाद विचारसार राजा ने कहा कि, ” आपकी बुद्धि की परीक्षा के बाद हमें विशवास है कि आप मंत्रिपद के स्थान को सुशोभित कर सकोगे। परंतु विशेष विशवास के लिए इतना ही पूछना है कि क्या आपने इससे पहले किसी राजा की सेवा की है? तो उसका नाम बताइए।”
उसने जवाब दिया – ” माफ कीजिएगा! मैं उसका नाम नहीं बताऊंगा, क्योंकि उसका नाम लेने से हाथ में लिया हुआ ग्रास भी छोड़ना पड़ता है।” राजा ने कहा – “आप यह क्या कह रहे हैं? क्या किसी का नाम लेने मात्र से ग्रास छोड़ना पड़ता है? आप गप तो नही हाँक रहे हैं। लो! अभी भोजन मंगवाता हूँ।” इस प्रकार कह कर राजा ने भोजन का थाल मंगवाया। हाथ में एक ग्रास (कवल) लेकर शीलसिन्नाह से कहा कि अब उस राजा का नाम बोलिए। तब उसने कहा, “रुक्मिणी।” इतना उच्चारण करते ही एक संदेशवाहक ने आकर राजा से कहा-“चलिए, जल्दी चलिए। शत्रुओं ने राज्य पर आक्रमण कर दिया है। विकट परिस्थिति खड़ी हो गई है। अपनी सेना पीछेहट कर रही है। हार-जीत का सवाल है। आप शीघ्र पधारिये। ” राजा ने तुरंत हाथ में लिया हुआ कवल थाली में डाल दिया औऱ युद्ध के लिए प्रयाण किया। शीलसिन्नाह भी साथ में गया। युद्ध की सीमा पर राजा को रोक कर शीलसिन्नाह ने युद्धभूमि में प्रवेश किया कि तुरंत ही…..उसे मारने के लिए शत्रु सैनिक सामने आने लगे। युद्धभूमि में प्रवेश करते ही उन सैनिकों को शीलसिन्नाह के ब्रहमचर्य के प्रति अनुराग के कारण शासन- देवी ने स्तंभित कर दिए और आकाशवाणी की कि, ” ब्रहमचर्य में आसक्त शीलसिन्नाह को नमस्कार हो ।” इस प्रकार घोषणा करके देवताओं ने उस पर पुष्पवृष्टि की।
शीलसिन्नाह यह सुनकर ऊहापोह करने लगा। इतने में तो विचार करते करते उसे अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ। ब्रहमचर्य का प्रेम भी आत्मा को इतने उच्च स्थान पर पहुँचा सकता है, तो जीवनभर ब्रहमचर्य के साथ संयम पालूँ, तो कैसा अदभुत उत्थान होगा? इत्यादि वैराग्यभाव में आकर उसने वहीं पर दीक्षा ले ली।

शीलसिन्नाह मुनि विहार करते – करते एक बार शितिप्रतिष्ठित नगर में आये। वहाँ रुक्मिणी वंदन करने आयी और उद्यान में देशना सुनी। देशना सुनने से उसके रोम-रोम वैराग्य से झनझनाने लगे। दिल रूपी बावड़ी में वैराग्यभाव का पानी उछलने लगा। उससे समग्र संसार का परित्याग कर चारित्र ग्रहण किया।

बहुत वर्षों के बाद शीलसिन्नाह आचार्य हुए, उसके पश्चात एक बार शीलसिन्नाह आचार्य के पास रुक्मिणी साध्वी विहार करके आयी और कहने लगी कि, ” मुझे अनशन करना है।” जब आचार्यश्री ने कहा कि अनशन करने से पहले आलोचना करके आत्मा को हल्का बनाना चाहिए। जिससे सदगति और मोक्ष की प्राप्ति हो। उसने आलोचना कहनी शुरू की। अनेक प्रकार की हिंसा,असत्य, चोरी आदि की आलोचना कह दी। परंतु राजदरबार में घटित आँख के पाप की आलोचना नहीं कही। आचार्यश्री ने अनेक प्रकार से वह पाप याद कराने और आलोचना करवाने का प्रयत्न किया। परंतु उसने दूसरे नए किए हुए हिंसादि पापों को याद कर आलोचना ग्रहण की। अन्त में आचार्य भगवंत ने साध्वीजी को कहा कि राजदरबार में किसी व्यक्ति पर विकारमय दृष्टि डाल कर पाप किया हो, तो उसकी भी आलोचना करनी चाहिए। रुक्मिणी साध्वी समझ गई कि आचार्यश्री तो मेरा पाप जानते हैं। अब यदि उनके समक्ष इकरार करूँगी, तो उसने कल्पना की कि उनकी दृष्टि में हलकी – नीच गिनी जाऊँगी। परंतु अब मेरे महत्व का रक्षण किस तरह करूं ? मोहनीय कर्म के उदय से स्वयं का महत्त्व और अहंत्व बनाये रखने के लिए उसने बात को मोड़ दिया और कहा कि मैंने मंत्री के सत्व की परीक्षा के लिए दृष्टि डाली थी। इस प्रकार पाप को छिपाया और शुद्ध आलोचना न ली। जिससे उसके एक लाख (१०००००) भव हुए।

अब विचार कीजिये कि अनेक प्रकार के पापों की आलोचना करने पर हम यदि एक भी पाप की आलोचना छिपा देंगे, तो रुक्मिणी की तरह हमारी आलोचना शुद्ध नहीं हो पायेगी। हाँ, पाप याद करने पर भी याद न आए, तो अन्त में यह कहना कि “मैंने इससे भी अधिक पाप किये हैं। ओह गुरुवर्यश्री ! कुछ तो याद ही नहीं आते हैं, अतः कोई पाप अनजान में रह गया हो, तो उसका भी प्रायश्चित करने को तैयार हूँ। उनका मिच्छामि दुक्कडम।”

छउमत्थो मूढमणो कित्तीयमित्तं संभरइ जीवो । जं च न संभरामि मिच्छामि दुक्कडं तस्स ।।१।।

हे तारक गुरुदेव! मैं अज्ञान और मूढ़मन वाला हूँ। मुझे कितना याद रह सकता है ? जो याद नहीं हो, उसका मिच्छामि दुक्कडम् ।

“यह रोमैन्स में क्लिंटन की अश्लीलता नही है महान कवि कालिदास का सुसंस्कृत श्रृंगार है।”
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