शालीग्राम में एक गरीब विधवा रहती थी। उनका नाम *धन्या* था। वो अपने संगम नामक पुत्र के साथ रहती थी। संगम नगरजनो के पशुओं को चरवाता था। किसी पूर्वोत्सव में सब घरो में बनती हुई खीर देखकर संगम ने अपनी माँ से कहा – ” *माँ! मेरे लिए तू खीर क्यों नही बनाती?*
माता सोच में आ गयी की ” ओह…… गरीबी क्या चीज है?? मेरे पुत्र को क्या पता?? हाय………गरीबी। मै अपने इकलौते बेटे का एक सामान्य मनोरथ भी पूर्ण नही कर सकती।” ऐसे विचारो से धन्या रोने लगी।
उसके रुदन से पडोसी स्त्रियों को पता चला। उन्होंने घी, दूध, शक्कर आदि खीर की सामग्री माता को दी। इस सामग्री से खीर बनाई औए अपने बेटे को परोसा। फिर किसी कार्यवश बहार गई।
इधर कोई मासोपवासी जैन मुनि महाराज भिक्षा लेने के लिए पधारे। उनको देखते ही संगम ने विचार किया- ” *ये सचेतन चिंतामणि रत्न, जंगम कल्पवृक्ष और कामधेनु रूपी मुनि महाराज मेरे भाग्य से इस समय यहाँ आये है। बहुत अच्छा हुआ,, नही तो मुझ जैसे गरीब को ऐसे उत्तम पात्र का योग कहाँ मिलता है?*
यह सोचकर संगम ने तुरंत ही माँ की परोसी हुई अपनी थाली की पूरी खीर अपूर्व भावोल्लास के साथ मुनि को बहोरा दी। संगम बहुत खुश हुआ। उसके आनंद का कोई पार ही नही। फिर बहार से आकर माँ ने संगम को फिर से खीर परोसी। माँ सोच में पड़ी की संगम ने इतनो जल्दी सारी खीर कैसे खा ली।
संगम ने माँ को मुनि के प्रवेश और खीर वोहराने का नही बताया। आकंठ खीर खाने से संगम को अजीर्ण हुआ और दर्द से पीड़ित होते हुए उसी रात मुनि को किये हुए दान की अनुमोदना करता हुआ मर कर राजगृही नगरी के गोभद्र सेठ और भद्रा सेठानी के यहाँ पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ।
पुत्र का नाम शालीभद्र रखा और युवावस्था में उसका बत्तीस(32) स्त्रियों के साथ पाणिग्रहण हुआ। वह भोग विलास मर मस्त रहने लगा। उसके पिता देवलोक से पुत्र स्नेह के कारण सोने और वस्त्र की *नव्वाणु पेटियाँ*भेजने लगे। जिस दिन उसने जाना कि मेरे ऊपर भी कोई मालिक है (श्रेणिक महाराज) तब उसे संसार से विरक्ती हुई और धीर-धीरे एक-एक स्त्री का त्याग करने लगे।
धन्ना *(बहनोई)* के कहने पर एक साथ सब त्याग दिया।
और फिर परमात्मा प्रभु वीर के पास चरित्र ग्रहणकर उग्र तपश्चर्या कर मोक्ष पाये।।