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औचित्य माता पिता का – भाग 22

हक का पागलपन नहीं चल सकता:

सभा: पुत्र का अधिकार नहीं?

सब माता-पिता का है, वह दे तो ही लेना चाहिए। वे न तो नहीं लेना चाहिए। दुनियादारी की रीत से भले ही हक लगता हो, किंतु धर्म की दृष्टि से कोई हक नहीं लगता। रामचंद्रजी का दशरथ महाराजा की गद्दी पर अधिकार था कि नहीं? बड़े पुत्र थे, पिता भी उन्हें ही गद्दी पर बैठाना चाहते थे, राज्य की जनता भी की भी यही भावना थी कि राजा तो रामचंद्रजी ही बने! उनकी योग्यता भी थी। पूर्णतः समर्पित थे। इसलिए उनके राज्य अभिषेक का निर्णय भी लिया जा चुका था। इसकी तैयारी भी हो चुकी थी। राजमाता कैकेयी भरत की माता थी। महाराजा दशरथ कि वह भी पटरानी थी। जैन शासन ने उनके व्यक्तित्व को हूबहू न्यायपूर्ण शैली में प्रस्तुत किया है। अन्य ने महासती केकैयी का जैसा चित्रण किया है, वैसा निम्नस्तर का उनका जीवन नहीं था। दशरथ जैसे महाराजा की वे पत्नी थी, भरत जैसे महावैरागी पुत्र की वे माता थी, तो उनका व्यक्तित्व कैसा उन्नत होगा!

महाराजा दशरथ के साथ भरत का अनेक बार संवाद हुआ था। ‘पिताजी! आप जब भी दीक्षा लेंगे तब मैं भी आपके साथ ही दीक्षा लूंगा।’ इस बात की महारानी केकैयी साक्षी थी। उन्हें आघात लगा कि एक तरफ मेरे पति महाराजा दशरथ ने दीक्षित होने का निर्णय कर लिया है तो उनके महाभि-निष्क्रमण के रास्ते में आना अनुचित है और उनके साथ हुए समझौते के अनुसार पुत्र भरत भी दीक्षा के पथ पर आगे बढ़े बिना रहेगा नहीं।

एक तरफ पति जा रहा है तो दूसरी और उनके साथ पुत्र जाने की भी पूरी संभावना है। पति के विरह की स्थिति में पुत्र ही सबसे बड़ा सहारा होता है। यहां तो दोनों आश्रय एक साथ जाने का भय उत्पन्न हुआ था। इसीलिए महारानी केकैयी से बड़ी भूल हुई है। उसके हृदय में ऐसा भय बैठ गया था कि पति के जाने से वह राजरानी नहीं रहेगी और पुत्र के जाने से वह राजमाता के पद से भी चली जाएगी। रामचंद्रजी राजा बनेंगे तो महारानी कौशल्या को राजमाता का पद मिलेगा। मेरा क्या होगा? ऐसा असुरक्षा का भाव उसे परेशान करने लगा और उसमें से स्त्री सुलभ क्षुद्रता के कारण वे लंबा नहीं सोच सकी और इसीलिए किसी भी उपाय से भरत को संसार में रोकने के प्रयास में जुट गई। उन्होंने महाराजा को पूर्व में दिए वचन का स्मरण कराया और भरत के लिए राजगद्दी मांग ली। रामचंद्रजी वनवास स्वीकार करेंगे, इसकी उसे कल्पना भी नहीं थी। ऐन मौके पर उन्होंने ‘वरदान’ की याद दिखाई थी।

महारानी केकैयी ने महाराजा से कहा ‘महाराज’ आप ने मुझे वरदान दिया था, वह यादें है?’ महाराज ने सम्मति दर्शक ‘हां’ में सिर हिलाया और कहा कि ‘वरदान के लिए मैं बाध्य हूं किंतु एक बात सुनो जब मैंने वरदान दिया था तब मैं वैरागी नहीं था। आज मैं वैरागी बनकर दीक्षा के मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए कृतनिश्चयी बना हूं। इसीलिए मेरे दीक्षा के मार्ग में अंतराय न आए ऐसा तुम कुछ नहीं मांग सकती। बाकी जो मांगो वह सब देने के लिए मैं बाध्य हूं।’

इसीलिए उन्होंने भरत के लिए राजगद्दी की मांग की और वहीं पर महाराजा दशरथ ने उनसे कह दिया ‘तथास्तु’

आज आपका भाग-हिस्सा आपको देने के बजाय आपके माता-पिता आपके भाई को दे दें तो आपको क्या होगा?

सभा: कोर्ट में जाएंगे।

माता-पिता के खिलाफ अदालत में जाने का विचार भी आए तो वह सबसे बड़ी अयोग्यता है। जो कुछ है वह सब माता-पिता का ही है। वे किसी को भी दे सकते हैं। यह उनका अधिकार है। उन्हें किसे देना है और किसे नहीं देना है, इसका विचार उन्हें करना है, आपको नहीं।

वास्तव में तो संतानों को यही मानना चाहिए कि ‘हमें मिला यह शरीर भी माता-पिता की ही देन है। इस पर भी उनका ही अधिकार है। हमारा बिल्कुल नहीं। कल यदि माता-पिता यह शरीर मांगे तो वह भी उनके समक्ष धर देना चाहिए।’

महाराजा दशरथ को ऐसा लगा कि वचन तो पूरा हुआ। ऋण के भार से मुक्त हुआ। किंतु यह बात मुझे राम के कानों में डालनी चाहिए। इसीलिए रामचंद्रजी को बुलाकर बात की। ‘राज भरत को दिया है, यह मैं तुझे बताता हूं।’ पिता के यह वचन सुनकर रामचंद्रजी को आघात लगा! राज नहीं मिला उसका यह आघात नहीं था। इस आघात का कारण दूसरा था। रामचंद्रजी ने पिता से कहा ‘पिताजी! राज आपका है। यह किसे देना है यह आपका अधिकार है। भरत मेरा भाई ही है। उसे राज दिया तो मुझे राज दिया यही कहा जाएगा। इसके बजाय आप रास्ते जाते व्यक्ति को राज दे दो और मुझे उसके सिर पर छत्र धरने अथवा उसकी छड़ी पुकारने का आदेश करो, अगर मैं ऐसा न करूं तो महाराजा दशरथ के पुत्र के रूप में स्वयं का परिचय कराने का मुझे अधिकार नहीं। मुझे दु:ख केवल इतना है कि राज जैसी तुच्छ वस्तु के लिए आपको मुझसे पूछने की आवश्यकता पड़ी। जब लोग यह जानेंगे कि राज के लिए महाराजा दशरथ को राम से पूछना पड़ा था-तो इससे मेरा परम अविनय प्रदर्शित होगा; मुझे दु:ख व आघात इसी बात का है।’

यह अपनी सच्ची आर्य संस्कृति है। आर्य संस्कृति का यह आदर्श है। रामायण में आर्य संस्कृति का ऐसा ही आदर्श कदम-कदम पर वर्णित किया है। बाकी संस्कृति के अथवा आर्य संस्कृति के नाम को आगे करके हिंसा एवं मिथ्यात्व को बढ़ानेवाली प्रवृतियों का पोषण करना, यह संस्कृति नहीं है, बल्कि संस्कृति का नाश है। यह एक खतरनाक खेल है, जो हजारों के भाव प्राणों का खात्मा कर देता है।

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